Saturday, 25 March 2017

पेड़ की छाँव में ग्लैमरस महाराज की धुनी

सब जानते है प.पू. डॉ. भय्यूजी महाराज आध्यात्मिक दुनिया के ग्लैमरस महाराज हैं उनके आसपास का वलय वीआइपी और नामचीन लोगो का रहता है वे खुद भी रहन-सहन और लाबोलिबास से मॉडल संत हैं ।इन सबके बावजूद आज उन्होंने अपने सूर्योदय आश्रम से नई पहल नई शुरुआत की। वे आश्रम के मुख्यद्वार पर स्थित औदुम्बर के वृक्ष के नीचे पंचगव्य से लिपे चबूतरे पर बेहद संजीदा होकर बैठ गए उन्होंने वहीँ लोगो को मार्गदर्शन देना शरू कर दिया। यह बहुत ही अदभुत दृश्य था । इसलिए भी की स्वयं भय्यू जी महाराज को सब ग्लेमर्स के अदभुत महाराज की तरह जानते हैं जो अपने शौक और रहन-सहन में सबसे आगे और गाँव-गाँव की धूल फांक कर सोशल काम करने में सबसे आगे हैं।

यह इसलिए भी मौज़ है कि भय्यू जी महाराज कभी फैशन की दुनिया में मॉडल रहे हैं और आज भी कद काठी और दिखावे में किसी सितारे से कम नहीं है।
औदुम्बर में भय्यूजी महाराज के इष्ट देव भगवान् दत्तात्रय बसते हैं उनकी आराधना स्थल का इससे अच्छा कोई  स्थान नहीं हो सकता और जो लोग भय्यू जी महाराज के आराधक हैं उनके लिए भी इस स्थान से बेहतर और दिव्य कोई और स्थान नहीं हो सकता। 
आज़ दर्शन और मार्गदर्शन के लिए औदुम्बर का चबूतरा गुरुगादी की तरह स्थापित हो गया और स्थान की अलौकिकता अपने आप में बढ़ गयी। 
आज ही बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज़ हुसैन भी उनसे मिले । 

गर्मी के इस तपते मौसम में कोई ऐसा संत किसी पेड़ के नीचे अपनी धुनी रमा ले जो किसी ग्लैमर से कम नहीं हो तो मैं मानता हूँ इसे एस्प दिव्यता , अलौकिकता ,आराधना या उपासना चाहे जो कहे यह प्रण और संकल्पशीलता का बिरला उदहारण है जो आज किसी और संत अथवा गुरु में देखने को नहीं मिलता । प.पू.डॉ. भय्यूजी महाराज ने बहुत से मिथक तोड़े हैं उनमे से यह एक गुरुगादी का अभिनव उदाहरण उनके लिए भी है जो कभी अपने पंचसितारा अहमियत और चोले से नीचे नहीं उतरते।
सुरेन्द्र बंसल

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Friday, 24 March 2017

लोक के लिए तंत्र का स्वस्थ और स्वच्छ होना ही सुशासन है --डॉ भय्यू महाराज

लोकतंत्र का सही अर्थ तंत्र में शासन में  लोक का साफ प्रतिबिम्ब दिखना है । लोकतंत्र का यह प्रतिबिम्ब कैसा होना चाहिए? तंत्र की ऐसी छबि जिसमें नागरिकों की हिस्सेदारी, सहभागिता , सामूहिकता परिलक्षित होती हो वही शासन लोकतान्त्रिक शासन होता है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था भर का होना लोकतंत्र नहीं है उसका सही दर्शन उसके कार्यप्रणाली से दिखना और महसूस होना लोकतंत्र है।

कहने को हम आज विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देशों में हैं लेकिन क्या हमारी व्यवस्थाएं लोकतंत्र की निर्धारित परम्पराओं के अनुकूल है ? क्या हमारे तंत्र में लोक की हिस्सेदारी के माकूल इंतज़ाम है ? क्या हमारी नीतियां राष्ट्र को संचालित करने की है या वाक़ई लोकहितकारी राष्ट्र निर्माण पर अवलंबित है ।

 आज लोकतंत्र सरकार को स्थायी बनाने का साधन बन गया है । सरकारें लोकतंत्र का दुरूपयोग कर रही है । इसलिए भी कि नीतियां लोक हित में नहीं सरकार के बने रहने की कुटिल चालों में केंद्रित हो गयी  है । जो सरकार अपने बने रहने की नीतियों पर चलती है वे लोकतंत्र की मर्यादाओं को लांछित कर राजतन्त्र के लिए काम करती है। राजतन्त्र का अर्थ ही राज में बने रहने के तंत्र को निर्मित करना है। ऐसी सरकारें लोकतंत्र का सिर्फ  भ्रम देती है और उनके काम लोकतंत्र के विपरीत भावनाओं से क्रियाशील होते है।

हम कुछ समय से लोकतंत्र की आड़ में राजतन्त्र की व्यवस्थाओं से चल रहे है। वर्ग भेद,  जाति भेद ,समुदाय भेद, धर्म भेद और वर्ण भेद  आधारित राजनीति जब तक होगी सही मायने में लोकतंत्र  संचालित नहीं होगा । राजनीति की सैध्दांतिक जरुरत लोकनीति ही होना जरुरी है ।और लोकनीति ऐसी सामूहिक सम्मति है जिससे लोकतंत्र की बनावट होती है ।
लेकिन जिस तंत्र में लोकनीति की प्राथमिकता नहीं होगी वहां राजनीति तंत्र को दूषित कर निरंकुश व्यवस्थाओं से संचालित होने लगती है। लोकतंत्र की यह वर्तमान स्थिति बढ़ते हुए निरंकुशता की और जा रही है। दरअसल ऐसे में हम सुशासन का स्वप्न साकार नहीं कर सकते । 

सुशासन लोकतंत्र का उन्नत स्वरुप है। हम तंत्र में स्वस्थ  और स्वच्छता के बिना सुशासन की कल्पना नहीं कर सकते । सु का अर्थ ही शुभ से है और जिस शासन में सब कुछ शुभ हो तब ही सुशासन की स्थापना हो सकती है। सुशासन की कल्पना उस नियत मार्ग की जोर बढ़ना है जिसका अंत सुराज की स्थापना में है। यह बहुत ही श्रेष्ठ सोच है कि वर्तमान सरकारें सुशासन के लिए संकल्पित दिख रही है लेकिन तंत्र  का  स्वस्थ और  स्वच्छता याने मज़बूती के बिना सुशासन की कल्पना साकार नहीं हो सकती । तंत्र के भीतर की व्याप्त गन्दगी को निकाल कर स्वस्थ वातावरण का निर्माण और तदनुरूप सञ्चालन से ही सुशासन की व्यवस्था स्थापित हो सकती है , जिसमे नीति लोक के अनुरूप सामुदायिकता से तैयार हो और जिसमें मतान्तर नहीं एकमत हो और खास यह कि तंत्र का आतंक भी न हो। जहाँ तंत्र लोक को आतंकित करता है वहां न लोकतंत्र होता है और न ही सुशासन ।

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Wednesday, 22 March 2017

जल को व्यर्थ ना गवाएँ


> आँकड़े बताते हैं कि विश्व के 1.5 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नही मिल रहा है। भारत में यदि हम जल संकट  की बात करें तो हमें पता चलता है कि  महाराष्ट्र सहित देश में ऐसे कई राज्य हैं जहाँ आज भी कितने ही लोग साफ़ पानी के अभाव में या फिर रोग जनित गन्दे पानी से दम तोड़ रहे हैं। राजस्थान, जैसलमेर और अन्य रेगिस्तानी इलाकों में पानी  मनुष्य की जान से भी ज़्यादा कीमती है। पीने का पानी इन इलाकों में बड़ी कठिनाई से मिलता है। कई-कई किलोमीटर चल कर इन प्रदेशों की महिलाएँ पीने का पानी लाती हैं। यहाँ तक की इनकी ज़िंदगी का एक अहम समय पानी की जद्दोजहद में ही बीत जाता है। पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है, वहीँ दूसरी तरफ पिछले 50 वषों में पानी के लिए 37 भीषण हत्याकांड हुए हैं। यदि जल संकट इसी तरह जारी रहा तो इस शंका पर कोई शक नहीं होना चाहिए कि कहीं अगला विश्व युद्ध पानी  के कारण ना हो जाए। 
>
>  मित्रों, जल की इस विकट समस्या को देखते हुए समय रहते हम सबको वर्षा का जल अधिक से अधिक बचाने के लिए प्रयास करने  होंगे । बारिश की एक-एक बूँद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया, तो संभव है पानी केवल हमारी आँखों में ही बच पाएगा। हम तो अपने स्तर देश में, ख़ास कर महाराष्ट्र जैसे सुख पीड़ित राज्य में जल संरक्षण अनेको सार्थक प्रयास कर रहे हैं, पर इस मुहीम में देश के हर कर्तव्यनिष्ठ आदमी का जुड़ना आवश्यक है। 
>
> आज यानी 22 मार्च को पुरे विश्व में जल संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज का दिन है जीवनदायनी जल को बचाने के संकल्प का दिन। जल के महत्व को जानने का दिन और जल के संरक्षण के विषय में समय रहते सचेत होने का दिन।  प्रकृति जीवनदायी संपदा जल हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। चक्र को गतिमान रखना हमारी ज़िम्मेदारी है, चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन का थम जाना। प्रकृति के ख़ज़ाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है। हम स्वयं पानी का निर्माण नहीं कर सकते अतः प्राकृतिक संसाधनों को दूषित न होने दें और जल को व्यर्थ न गँवाएँ  -- आइये हम सब इस बात का शपथ लें ।

#Savewater #waterconservation
#water

:- Dr. BHAIYYUMAHARAJ

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Sunday, 19 March 2017

तुष्टि नहीं ये पुष्टि , संतुष्टि का राजयोग है

तुष्टि नहीं ये पुष्टि , संतुष्टि का राजयोग है
डॉ भय्यू महाराज

पाँच राज्यो के चुनाव के चुनाव परिणाम राष्ट्र में राजनैतिक दृष्टिकोण में बदलाव के शुभ सूचक है। आप सोचते होंगें राज्यो में किस राजनैतिक दल ने कितनी और कैसी विजय प्राप्त की है लेकिन मेरा सोचना है यह लोकतंत्र की राजनैतिक दृष्टि की महाविजय है ,यह राजनेताओं के दृष्टि परिवर्तन की विजय है ,यह लोकशक्ति के दूरदृष्टि की विजय है फिर चाहे परिणाम उप्र के हो , उत्तराखंड के हों ,गोवा के हों , पंजाब के हों या फिर मणिपुर के । यह राष्ट्रतंत्र के लोक की परिवर्तनीय दृष्टि है।
इस दृष्टि में किस तरह का राजयोग बना है यह जानने के लिए परिणामों का नहीं इसके अंतर में निहित उन हालतो को समझना होगा जो सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीति के दूषित कारक बन गए । कोई भी राज राज्य और प्रजा के योग से बनता है जो इसे समझ लेता है उसका राजयोग निर्मित हो जाता है। लेकिन दूषित राजनीति के बढ़ते प्रवाह में राज्य और प्रजा दोनों बह गए और राजनीति में तुष्टिकरण की रीति प्रविष्ट हो गयी । राजनीतिज्ञ राज्य को भूल गए और प्रजा याने इंसान को राजनैतिक अस्त्र की तरह इस्तेमाल करने लगे । ऐसे में इंसान वर्ग , जाति और धर्म में कुटिलता से विभक्त हो गया और राजनीति इसके आसपास केंद्रित हो गई ।

सत्ता प्राप्ति के योग  इंसान की जरुरत और उसके विकास की अवधारणा से नहीं उसके वर्गीकृत होने ,उसके जातिगत होने और उसके धर्माधारित होने की तुष्टि पर निर्मित होने लगे हैं। इस दूषित राजनीति का फैलाव अब भी बहुत ज्यादा है पर मुझे लगता है इस बार तुष्टि पर पुष्टि और संतुष्टि ने बढ़ चढ़कर राजनैतिक हल्ला बोला है । यह परिवर्तन राजनेताओं में भी है और लोगों में भी । राजनीति इस समय सही राह पर है । इस समय लोगों ने विकास की अवधारणा को साथ लिया उन्होंने तुष्टि करने वाले प्रलोभनों को छोड़ा और इस बात की पुष्टि की कि कौन राष्ट्र, समाज और मानव के  लिए लोकहितकारी और राज्यहितकारी है। यह सोच सही दृष्टिकोण है और जिस राजनेता ने इसे समझ लिया  उसने ही लोकतंत्र को संतुष्ट करने के नीतिगत    प्रयास करना शुरू किये जहाँ जिस पर लोगों को संतुष्टि हुई वहाँ वह विजयी हो गया। यह अच्छा संकेत है ।

उम्मीद, राजनेता इस सोच को बनाये रख राष्ट्र राज्य समाज और मानव के लिए विकासोन्मुख कार्य करने की परिवर्तनीय शैली को बनाये रखेंगे और आशा अनुरूप कार्य करने में सक्षम होंगें ।

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Saturday, 18 March 2017

समय के महत्व को समझें

मित्रों, समय का हम सबके जीवन में बहुत महत्व है पर हम में से अधिकांश समय की महत्ता पर ध्यान नहीं देते और चाहे अनचाहे में हमें समय के नुकसान की भरपाई भरनी पड़ती है। समय के महत्ता के सन्दर्भ में आप सबको एक कथा सुनाता हूँ  - कथा कुछ इस  तरह है - अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन ने एक बार कुछ मेहमानों को दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजन के बाद उन्हें सैनिक कमांडरों की एक आवश्यक बैठक में भाग लेना था। उनका नौकर जानता था कि जॉर्ज साहब समय की नियमितता को कितनी दृढ़ता से निबाहते हैं। इसलिए ठीक समय पर उन्हें सूचना दी गई कि भोजन लग चुका है, पर अभी तक मेहमान नहीं आए हैं। वह भोजन कक्ष आए और उन्होंने कहा, ‘बाकी प्लेटें उठा लो, हम अकेले ही भोजन करेंगे’। ‘उन्होंने मेहमानों के आने की प्रतीक्षा किए बगैर भोजन करना शुरू कर दिया।’ जब वे आधा भोजन कर चुके तब मेहमान पहुंचे। मेहमानों की प्लेट लगाई गई।

पर वाशिंगटन ने अपना भोजन समाप्त किया और निश्चित समय पर विदा लेकर उस बैठक में शामिल होने चले गए। सैनिक कमांडरों की बैठक में पहुंचने पर पता चला कि अमेरिका के एक भाग में भयंकर विद्रोह हो गया है। उनके समय पर पहुंच जाने के कारण तत्काल आवश्यक आदेश जारी किए गए और सभी पहलुओं पर विचार करते हुए हालात संभालने के उपाय किए गए। इस तरह एक बहुत बड़ी जन-धन की हानि होने से बचना संभव हो सका। इस बात का पता कुछ समय बाद उन मेहमानों को चला तो उन्हें आत्मग्लानि हुई। उन्होंने अनुभव किया कि प्रत्येक काम को निश्चित समय पर करने से भयंकर हानियों को रोका जा सकता है और जीवन को सुचारु ढ़ंग से जिया जा सकता है। यही सोच लेकर वे फिर से राष्ट्रपति के घर गए और उनसे उस दिन हुई भूल के लिए क्षमा मांगी। राष्ट्रपति ने कहा, ‘‘इसमें क्षमा जैसी कोई बात नहीं है, पर जिन्हें अपने जीवन की व्यवस्था, परिवार, समाज और देश की उन्नति का ध्यान हो, उन्हें समय का कड़ाई से पालन करना चाहिए।''

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Tuesday, 14 March 2017

सदगुण ही संत की पहचान

संत की पहचान कैसे हो सकती है ? या फिर संत किसे कहा जाता है? अन्धविश्वास से किये गए कार्य को धर्म नकारता है, उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति को चमत्कार के आधार पर संत का दर्ज देना भी धर्म को मंजूर नहीं है. वर्तमान में धर्म क्षेत्र से बड़ी मात्र में चमत्कार की अपेक्षा की जाती है. जो चमत्कार करेगा वह संत है, या आज जनसामान्य जनता की धारणा  बन चुकी है. अगर ऐसा है तो एक जादूगर में और संत में क्या फर्क रह जाएंगा ,वास्तव में देखा जाए तो संत किसी चमत्कार तक सीमित नहीं, जिसकी  कोई सीमा नहीं है, जो अध्यात्म को धर्म के माध्यम से समाज में विकसित करते है. जो सदगुणों के परम शिखर पर विराजित होकर विरक्त भाव से जनकल्याण के लिए अलोकिक लीलाए करते है वह संत है. संत गजानन महाराज, साईं बाबा, बाबा ताजुद्दंद्दीन, स्वामी समर्थ, ऐसे संत है, जिन्होंने अध्यात्म के माध्यम से सामाजिक क्रांति का बिगुल बजाया । संत तुकाराम, नानक साहब, कबीर जी, मीराबाई, उन्होंने भक्ति के सहारे धर्म को स्थापित करने का प्रयास किया. वही विवेकानन्द , अरविन्द घोष, स्वामी दयानंद तीर्थ जैसे महापुरुषो ने अध्यात्म कि नींव  पर ज्ञानयोग का प्रकाश फैलाया।  लोकमान्य, भगतसिंग, महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषो ने अध्यात्म के विचार पर स्वतंत्रता की नीव रखी । इन सब की संत के रूप में पहचान है. मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करना यही एक मात्र मानव कल्याण की भावन हृदय में बसाकर उन्होंने सभी सुखो का त्याग कर एक परम्  लक्ष्य को चुना चुना जो असाधारण था।
संत तुकाराम संतो के शिरोमणि है, सामाजिक क्रांति का बिगुल फुकने वाले, साहित्य को समाज सुधार का एक बेहतरीन औजार बनाने वाले संत तुकाराम सहिष्णुता की परिकाष्ठा  थे|
 संत तुकाराम का अभंग वाड्मय अत्यंत आत्मपरक होने के कारण उसमें उनके पारमार्थिक जीवन का संपूर्ण दर्शन होता है। कौटुंबिक आपत्तियों से त्रस्त एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार आत्मसाक्षात्कारी संत बन सका, इसका स्पष्ट रूप तुकाराम के अभंगों में दिखलाई पड़ता है। उनमें उनके आध्यात्मिक
 चरित्र की साकार रूप में तीन अवस्थाएँ दिखलाई पड़ती हैं। प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम मन में किए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत तथा परमार्थ की ओर प्रवृत दिखलाई पड़ते हैं। दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस चरम नैराश्य का जो सविस्तार चित्रण अंभंग वाणी में हुआ हैं उसकी हृदयवेधकतामराठी भाषा में सर्वथा अद्वितीय है। किंकर्तव्यमूढ़ता के अंधकार में तुकाराम जी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत  हुआ और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकाराम ब्रह्मानंद में विभोर हो गए। उनके आध्यात्मिक जीवनपथ की यह अंतिम एवं चिरवांछित सफलता की अवस्था थी।
इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति की साधना पूर्ण होने के उपरांत तुकाराम के मुख से जो उपदेशवाणी प्रकट हुई वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण और अर्थपूर्ण है। स्वभावत: स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का  निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना ही था। इन्होने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्मसंरंक्षण के साथ साथ पाखंडखंडन का कार्य निरंतर चलाया। दाभिक संत, अनुभवशून्य पोथीपंडित, दुराचारी धर्मगुरु इत्यादि समाजकंटकों  की उन्होंने अत्यंत तीव्र आलोचना की है।
तुकाराम  केवल वारकरी संप्रदाय के ही शिखर नहीं वरन दुनियाभर के साहित्य में भी उनकी जगह असाधारण है। उनके 'अभंग' अंग्रेज़ी भाषा में भी अनुवादित हुए हैं। उनका काव्य और साहित्य यानी रत्नों का ख़ज़ाना है। यही वजह है कि आज 400 साल बाद भी वे आम आदमी के मन में सीधे उतरते हैं।  दुनियादारी निभाते हुए एक आम आदमी संत कैसे बन गया, साथ ही किसी भी जाति या धर्म में जन्म लेकर उत्कट भक्ति और सदाचार के बल पर आत्मविकास साधा जा सकता है। यह विश्वास आम इंसान के मन में निर्माण करने वाले थे- संत तुकाराम यानी तुकोबा। अपने विचारों, अपने आचरण और अपनी  वाणी से अर्थपूर्ण तालमेल साधते अपनी ज़िंदगी को परिपूर्ण करने वाले तुकोबा जनसामान्य को हमेशा किस प्रकार जीना चाहिए, इसकी सही प्रेरणा प्रदान करते हैं।
संत  तुकाराम महाराज (१६०८-१६५०),सत्रहवीं शताब्दी के मौलिक व प्रेरणास्पद व्यक्तित्व के धनी एक महान संत कवि थे जो भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ थे। आज उनकी जयंती पर शत् -शत् नमन |



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Monday, 13 March 2017

होली  की मंगलकामनाएँ

होली  की मंगलकामनाएँ

आत्मीय परिजन,

आशा है, आप सभी परम पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद से  सकुशल होंगे ।।

आसुरी प्रवृत्तियों पर विजय पाने एवं नये उल्लास के साथ स्नेह -सौजन्य की मधुरता का वातावरण बनाने वाला फाल्गुन- पूर्णिमा पर्व आ पहुँचा है ।। इस पावन अवसर पर आप सबको अनेकानेक बधाइयाँ -- मनोकामनाएँ ।।

पर्व एवं त्यौहार किसी भी राष्ट्र की जीवनी शक्ति के परिचायक होते हैं ।। इसी क्रम में #होली का त्यौहार आनन्दोत्सव एवं हर्षोत्सव के पर्व के रूप में सर्वोपरि है ।।

 

स्वस्थ एवं ईर्ष्या- द्वेष से मुक्त व्यक्तिगत जीवन, समता, एकता एवं भाईचारे से युक्त सामाजिक व्यवस्था और आनन्द एवं उल्लास से भरा- पूरा जन- जीवन सदैव बना रहे, यही इसका मूल प्रयोजन है ।। इस पावन अवसर पर यदि हम संकल्पित होकर अपने सभी द्वेष- दुर्भाव एवं बेर-वैमनस्य को यज्ञाग्नि में होकर सभी सम्पर्क में आये परिजनों के बीच प्रेम- आत्मीयता का विस्तार करते चलें, तो हमारा पूर्ण विश्वास है कि  जीवन का  प्रवाह हमारे लिए सहज हो जायेगा और हम सबके लौकिक एवं पारलौकिक जीवन के उत्तरोत्तर विकास में यह सहायक सिद्ध होगा ।।

इस #होलिका पर्व के आगमन पर हमारी स्नेहपूर्ण शुभकामनाएँ  ।।

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Friday, 10 March 2017

शिक्षा और सेवा की महानायिका सावित्रीबाई फुले


#सावित्रीबाई #फुले  भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली #प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक  की मृत्यु 10 मार्च, 1897 को हुई । 

महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछात मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था।
1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया, वह भी पुणे जैसे शहर में।
वे स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से 160 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था कितनी सामाजिक मुश्किलों से खोला गया होगा देश में एक अकेला बालिका विद्यालय।
सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को #पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।अपने अंतिम समय प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीज़ों की सेवा के दौरान महामारी की शिकार हुई|

पुण्यस्मरण पर विनम्र अभिवादन ..........


;- भय्यू महाराज 
#safitribaifule #firstindianwomenteacher #savegirl #Mhatmajotibafule #womeneducation


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Thursday, 9 March 2017

देश में गुर्दा रोग एवं रोगियों की संख्या चिंताजनक

देश में गुर्दा रोग एवं रोगियों की संख्या चिंताजनक   

देश भर मे,गुर्दे के जानलेवा रोगों की संख्या चिंताजनक ढंग से बढ रही है। अगर आपको मधुमेह,हाइपरटेंशन या यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन(यूटीआई) है,तो गुर्दे के ख़राब होने का खतरा बढ़ जाता है। आंकड़े बताते हैं कि अधिकतर गुर्दा रोगी अस्पताल तब पहुंचते हैं जब उनका गुर्दा लगभग 50 प्रतिशत खराब हो चुका होता है। भारत मे,लगभग 16 प्रतिशत लोग गुर्दे की खतरनाक बीमारियों से पीड़ित हैं।
चिकित्सकों का मानना है कि लोगों को गुर्दे के रोग से बचने के लिए उसी प्रकार जांच करानी चाहिए जिस प्रकार वे मूत्र,रक्त,पेट के अल्ट्रासाउंड आदि के मामले मे करते हैं ताकि शुरूआती दौर मे ही पता लगाया जा सके। डायबिटीज और हाइपरटेंशन के रोगियों को गुर्दे की नियमित जांच करानी चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों मे गुर्दे की जानलेवा बीमारी की संभावना 50 प्रतिशत ज्यादा होती है।

गुर्दे को किसी भी प्रकार के नुकसान का प्रभाव हृदय पर भी पड़ता है क्योंकि बेकार पदार्थों को बाहर निकालने के अलावा,गुर्दा शरीर मे हीमोग्लोबिन तथा रक्तचाप सामान्य बनाए रखने का काम भी करता है। गुर्दे के प्रति सतर्क रहना इसलिए भी जरूरी है कि इससे जुड़े रोगों के इलाज यानी,डायलिसिस अथवा प्रत्यारोपण पर बहुत ज्यादा खर्च आता है जिसे वहन कर सकने मे 80 प्रतिशत रोगी अक्षम होते हैं।
डायलिसिस जीवन भर की बाध्यता बन जाती है और प्रति डायलिसिस लगभग 18 से 20 हजार रूपए प्रतिमाह का खर्च(गैर-सरकारी मामलों मे) आता है। गुर्दा प्रत्यारोपण पर 5 से 8 लाख रूपए तक का खर्च आता है। यह एक बेहतर विकल्प तो है लेकिन गुर्दा दान करने वाला ढूंढना मुश्किल होता है।

आज विश्व गुर्दा दिवस पर आवश्यकता है कि हम सब गुर्दा बिमारियों को बढ़ावा देने कारणों के प्रति सचेत रहें और दूसरों को भी सचेत रहने की सलाह दें 

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Wednesday, 8 March 2017

International women’s day.

International women’s day.

Women bear almost all responsibility for meeting basic needs of the family, yet are systematically denied the resources, information and freedom of action they need to fulfill this responsibility. Vast majority of women both in India and the world are poor, illiterate, have not access to health. Safety is other major concern for them and they are constantly exposed to the threat of violence both at the home and outside. On the International Women’s Day, we need not only to change our mindset towards women but should ensure they are not deprived of their basic rights or subjected to any kind of torture, otherwise complete empowerment of women in our country would be a far cry.
Education, health, safety keys to empowerment of Indian women
`Yatra nariyastu pujyante, ramante tatra devta’ ( The God exists where women are worshipped). This adage has become a passé, even as Indian women have made great stride conquering all bastions, hitherto dominated by men. However, on its flip side, notwithstanding Indian women reaching great heights, the fact is a majority of them in our society continue to lead a life, incompatible to human dignity.
The glaring and brutal gang rapes of women reported from various parts of the country, gender discrimination and growing incidents of domestic violence against them stemming out of dowry, rape, harassment and an assortment of others make a telling commentary on the plight of Indian women today.
Women want to be treated as equals so much so that if a woman rises to the top of her field it should be a commonplace occurrence that draws nothing more than a raised eyebrow at the gender. This can only happen if there is a channelized route for the empowerment of women.
Thus it is no real surprise that women empowerment in India is a hotly discussed topic with no real solution looming in the horizon except to doubly redouble our efforts and continue to target the sources of all the violence and ill-will towards women.
The crimes against women fly directly against orchestrating women empowerment in India. A report on the crimes against women by the National Crime Records Bureau comes up with some alarming statistics with number of cases of rapes, torture, molestation, sexual harassment increasing every year.
To understand what it is that drives such crimes against women is an essay on its own, if not a PhD thesis. There are a vast number of drivers for such behaviour in the Indian citizenry, but there are some acute reasons that such behaviour continues despite the apparent movement towards civilisation.
Challenges
There are several challenges like their education, health and safety, poverty that are currently plaguing the issues of women’s rights in India. While a lot of these are redundant and quite basic issues faced across the country, these are contributory causes to the overarching status of women in India. Targeting these issues will directly benefit the empowerment of women in India.
Though the Government of India has taken several initiatives to arrest ills plaguing Indian women, there are still quite a few areas where women empowerment in India is largely lacking.

To truly understand what is women empowerment, there needs to be a sea-change in the mind-set of the people in the country. Not just the women themselves, but the men have to wake up to a world that is moving towards equality and equity. It is better that this is embraced earlier rather than later, for our own good.

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नारी सशक्त है उन्हें स्वच्छंद और स्वतंत्र कीजिये

नारी सशक्त है उन्हें स्वच्छंद और स्वतंत्र कीजिये

आज महिला दिवस मनाने का अर्थ क्या है ? सीधी बात है महिलाओं को हम अधिक सशक्त बनाना चाहते हैं लेकिन मेरा मानना है इस तरह हम नारी शक्ति को कमज़ोर आँक रहे हैं। जो किसी न किसी दृष्टि से कमज़ोर हो , असहाय हो उसे ही तो सशक्त आत्मनिर्भर बनाने की बात कही जाती है। लेकिन आप हमारे राष्ट्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में नज़र डालेंगें तो आपको हैरत होगी जिस नारी को हम अबला या असहाय समझते हैं वह मनोरूप से सशक्त और सबल वीरांगनाएँ है। उनकी वीरता की गाथा और विषम परिस्थितियों में अपने सुहाग , समाज , परिवार और राज्य के लिए प्राण न्यौच्छावर करने के किस्से इतिहास के पन्नों में दर्ज़ है। फिर जीजा बाई हो , महारानी लक्ष्मी बाई हो,अहिल्या बाई हो या अन्य सैकड़ों वीरांगनाएँ सभी शक्ति और दृढ़ता का प्रतीक रही हैं । आखिर फिर हम किसे सधक्त करने की बात करते हैं?

यह हमारी पौरूषिक वृत्ति है कि हम महिलाओं को कमज़ोर और अबला समझते हैं । हमारे पौराणिक समाज की रचना दरअसल परिवार के जिम्मेदारियों का बँटाव है ।जहाँ पुरुषो को परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी दी गयी यहीं महिलाओं को घरबार की व्यवस्था का भार सौपा गया। । जिम्मेदारियों के इस बँटाव ने जहाँ पुरुषों को आज़ाद कर दिया वहीं महिलायें घर के भीतर केंद्रित हो गयी। इस स्थिति ने समाज में विषमताओं को जन्म दिया,भेदभाव को जन्म दिया ,अपराध को जन्म दिया , निरंकुशता को जन्म दिया , बुराइयों को जन्म दिया और इसी से समाज में बंधन , बेड़ियां और रूढ़ियाँ उत्पन्न हुई । यहीं से समाज पुरुष प्रधान हो गया । पुरुष  स्वच्छंद होता गया और नारियां बंधनों में जकड़कर घर की चौखट के भीतर कैद कर दी गयीं ।समाज की यह विसंगत मानसिकता बढ़ती गयी और विसंगतियां विकराल होती गयी,  समाज स्त्री और पुरुष के भेद में विभक्त हो गया और उसका स्वरुप रूढ़ियों और बेड़ियों से निर्मित सामाजिक परम्पराओं , मान्यताओं और रिवाज़ मे परिवर्तित कर दिया गया ,यहीं से नारियों को अबला माना जाने लगा । 

दरअसल यह सब स्त्री शक्ति के खिलाफ एक तरह से दुष्प्रचार था जो मान्यता बन गयी । उन्हें स्वच्छंद और स्वतंत्र नहीं रहने दिया गया , उन्हें कमज़ोर,अशक्त, अबला जैसे न जाने कितने काराग्रही वृत्तो के भीतर दूषितवृत्ति से रखा जाने लगा । 

स्त्री और पुरुष समाज के दो अंग है , सर्वशक्ति ने  मानव की उत्पत्ति कर उसकी शक्ति , सोच और क्षमताओं में भेद नहीं किया लेकिन समाज के रचनाकारों ने मानव को मानव से बाँट दिया । पुरुष स्वच्छंद और स्वतंत्र होता गया और स्त्रियां उनकी  पराधीन हो गयीं । काल बदलते गए लेकिन हालात नहीं बदले  । आधुनिक समय मे ,आधुनिक हालातों में जिन नारियों ने रूढ़ियों और बेड़ियों से बाहर  निकल कर स्वच्छंदता से अपना स्वतंत्र  मार्ग तैयार किया है उन्होंने  अपनी पहचान  पुरुषों से कम नहीं बनायीं है ।
इसलिए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर यह प्रण कीजिये किे सामाजिक रूढ़ियों और बेड़ियों को तोड़कर नारियों को स्वच्छंदता और स्वतंत्रता से कार्य करने देकर उन्हें अपने अवसरों से निर्मित मार्ग बनाने देने की सम्पूर्ण छूट देंगें और पुरुष या स्त्री प्रधान समाज नही  मानव प्रधान समाज की नवसंरचना करेंगें।

महिला दिवस पर राष्ट्र की स्त्रीशक्ति का वंदन और शुभकामनायें !

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