लोकतंत्र
का सही अर्थ तंत्र में शासन में लोक का साफ प्रतिबिम्ब दिखना है ।
लोकतंत्र का यह प्रतिबिम्ब कैसा होना चाहिए? तंत्र की ऐसी छबि जिसमें
नागरिकों की हिस्सेदारी, सहभागिता , सामूहिकता परिलक्षित होती हो वही शासन
लोकतान्त्रिक शासन होता है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था भर का होना लोकतंत्र
नहीं है उसका सही दर्शन उसके कार्यप्रणाली से दिखना और महसूस होना लोकतंत्र
है।
कहने को हम आज विश्व
के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देशों में हैं लेकिन क्या हमारी व्यवस्थाएं
लोकतंत्र की निर्धारित परम्पराओं के अनुकूल है ? क्या हमारे तंत्र में लोक
की हिस्सेदारी के माकूल इंतज़ाम है ? क्या हमारी नीतियां राष्ट्र को संचालित
करने की है या वाक़ई लोकहितकारी राष्ट्र निर्माण पर अवलंबित है ।
आज
लोकतंत्र सरकार को स्थायी बनाने का साधन बन गया है । सरकारें लोकतंत्र का
दुरूपयोग कर रही है । इसलिए भी कि नीतियां लोक हित में नहीं सरकार के बने
रहने की कुटिल चालों में केंद्रित हो गयी है । जो सरकार अपने बने रहने की
नीतियों पर चलती है वे लोकतंत्र की मर्यादाओं को लांछित कर राजतन्त्र के
लिए काम करती है। राजतन्त्र का अर्थ ही राज में बने रहने के तंत्र को
निर्मित करना है। ऐसी सरकारें लोकतंत्र का सिर्फ भ्रम देती है और उनके काम
लोकतंत्र के विपरीत भावनाओं से क्रियाशील होते है।
हम
कुछ समय से लोकतंत्र की आड़ में राजतन्त्र की व्यवस्थाओं से चल रहे है।
वर्ग भेद, जाति भेद ,समुदाय भेद, धर्म भेद और वर्ण भेद आधारित राजनीति जब
तक होगी सही मायने में लोकतंत्र संचालित नहीं होगा । राजनीति की
सैध्दांतिक जरुरत लोकनीति ही होना जरुरी है ।और लोकनीति ऐसी सामूहिक सम्मति
है जिससे लोकतंत्र की बनावट होती है ।
लेकिन जिस
तंत्र में लोकनीति की प्राथमिकता नहीं होगी वहां राजनीति तंत्र को दूषित कर
निरंकुश व्यवस्थाओं से संचालित होने लगती है। लोकतंत्र की यह वर्तमान
स्थिति बढ़ते हुए निरंकुशता की और जा रही है। दरअसल ऐसे में हम सुशासन का
स्वप्न साकार नहीं कर सकते ।
सुशासन
लोकतंत्र का उन्नत स्वरुप है। हम तंत्र में स्वस्थ और स्वच्छता के बिना
सुशासन की कल्पना नहीं कर सकते । सु का अर्थ ही शुभ से है और जिस शासन में
सब कुछ शुभ हो तब ही सुशासन की स्थापना हो सकती है। सुशासन की कल्पना उस
नियत मार्ग की जोर बढ़ना है जिसका अंत सुराज की स्थापना में है। यह बहुत ही
श्रेष्ठ सोच है कि वर्तमान सरकारें सुशासन के लिए संकल्पित दिख रही है
लेकिन तंत्र का स्वस्थ और स्वच्छता याने मज़बूती के बिना सुशासन की कल्पना
साकार नहीं हो सकती । तंत्र के भीतर की व्याप्त गन्दगी को निकाल कर स्वस्थ
वातावरण का निर्माण और तदनुरूप सञ्चालन से ही सुशासन की व्यवस्था स्थापित
हो सकती है , जिसमे नीति लोक के अनुरूप सामुदायिकता से तैयार हो और जिसमें
मतान्तर नहीं एकमत हो और खास यह कि तंत्र का आतंक भी न हो। जहाँ तंत्र लोक
को आतंकित करता है वहां न लोकतंत्र होता है और न ही सुशासन ।
Yes absolutely right.
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