हम अक्सर दोहरा जीवन जीते हैं- हमारे कथन और कर्म दोनों में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है, इसका कारण भी बहुत हद तक समझ में आता है और वो- पश्चिम की तथाकथित आधुनिकता पर किया गया हमारा अन्धविश्वास, या कहें इस मानसकिता के चलते जाने की वाली हमारी अपनी सभ्यता और संस्कृति की तर्कहीन उपेक्षा है
हमारी संस्कृति में धर्म का वास्तविक अर्थ हमारे आज की अलग-अलग सम्प्रदाय एवं जातिगत परिभाषाओं से बहुत अलग है, झूठे कर्मकाण्ड,आडम्बर,कुरीतियाँ,कुप्रथाएं हमारे धर्म का असल मर्म न होकर महज एक भ्रम हैं.
जिस प्रकार जर्मनी उनके अनुशासन के लिए जाना जाता है, जापान उनके अदद परिश्रम और लगन की प्रवृत्ति के चलते प्रसिद्द है, ठीक उसी तरह हमारे सम्पदा हमारा मनोविज्ञान,दर्शन,आध्यात्म और हमारी कृषि क्षमता है. लेकिन हम दिनोदिन इन्हीं से दूर होते जा रहे हैं.
हमारा धर्म कुछ सामाजिक कलंको के चलते यशहीन होता जा रहा है, हमारी कृषि रासायनिक कृषि के तथाकथित आधुनिक उपक्रमों के चलते विनाश की ओर जा रही है, हमारा आध्यात्म एक फैशन के अलावा कुछ रहा ही नहीं, कोई इसका मर्म समझना ही नहीं चाहता. हम पर व्यवहार से अधिक व्यापारिक मानसिकता हावी होती जा रही है- ऐसा नहीं है कि हम इसका नुकसान नहीं झेल रहे हैं बल्कि हम ऐसी हानि कि तरफ जा रहे हैं कि जहाँ प्रायश्चित के लिए भी कोई स्थान नहीं होगा.
हमारी संस्कृति में धर्म का वास्तविक अर्थ हमारे आज की अलग-अलग सम्प्रदाय एवं जातिगत परिभाषाओं से बहुत अलग है, झूठे कर्मकाण्ड,आडम्बर,कुरीतियाँ,कुप्रथाएं हमारे धर्म का असल मर्म न होकर महज एक भ्रम हैं.
जिस प्रकार जर्मनी उनके अनुशासन के लिए जाना जाता है, जापान उनके अदद परिश्रम और लगन की प्रवृत्ति के चलते प्रसिद्द है, ठीक उसी तरह हमारे सम्पदा हमारा मनोविज्ञान,दर्शन,आध्यात्म और हमारी कृषि क्षमता है. लेकिन हम दिनोदिन इन्हीं से दूर होते जा रहे हैं.
हमारा धर्म कुछ सामाजिक कलंको के चलते यशहीन होता जा रहा है, हमारी कृषि रासायनिक कृषि के तथाकथित आधुनिक उपक्रमों के चलते विनाश की ओर जा रही है, हमारा आध्यात्म एक फैशन के अलावा कुछ रहा ही नहीं, कोई इसका मर्म समझना ही नहीं चाहता. हम पर व्यवहार से अधिक व्यापारिक मानसिकता हावी होती जा रही है- ऐसा नहीं है कि हम इसका नुकसान नहीं झेल रहे हैं बल्कि हम ऐसी हानि कि तरफ जा रहे हैं कि जहाँ प्रायश्चित के लिए भी कोई स्थान नहीं होगा.
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