बहुत समय पहले की बात है गुरु शांतानदं अपने शिष्यों के साथ अपने आश्रम में किसी विषय पर कोई खास चर्चा कर रहे थे | तभी एक भिखारी वंहा से होता हुआ गुजरा तो शिष्य को उसे देखकर थोडा आश्चर्य हुआ | उसने गुरूजी से पूछा कि गुरूजी राज्य में चारो ओर खुशहाली और समृद्धि का माहौल है फिर भी राज्य में ये भिखारी कैसे क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि यह किसी दूसरे राज्य से यंहा आया होगा | अगर इसी राज्य का है तो यंहा का यह सबसे दरिद्र मनुष्य होगा |
नहीं पुत्र इस से भी दरिद्र एक व्यक्ति है लेकिन वह मैं तुम्हे अवसर आने पर ही बताऊंगा | बात सामान्य हो गयी और शिष्य भूल भी गया | इस घटना के कुछ ही दिनों बाद एक दिन दोनों गुरु और शिष्य कंही जा रहे थे तो उन्होंने क्या देखा कि दूर से उसी राज्य के राजा विजय सिंह अपनी सेना के साथ उसी रास्ते पर आ रहे थे |
गुरु ने अपने शिष्य से कहा वत्स उस दिन जो हम लोगो ने बात को बीचे में छोड़ दिया था वो मैं आज पूरी करूँगा और तुम्हें बताऊंगा कि राज्य का सबसे दरिद्र व्यक्ति कौन है | इतने में राजा की सवारी एकदम नजदीक आ गयी | ऋषि को देखकर राजा अपनी सवारी से उतरा और ऋषि को नमन करते हुए बोला गुरु जी मैं पडोसी राज्य को जीतने के लिए जा रहा हूँ कृपया मुझे विजयी होने का आशीर्वाद दें | इस पर ऋषि बोले राजन तुम्हें इस राज्य में किसी भी चीज़ की कमी नहीं है चारो तरफ सुखी और समृद्धि का माहौल है उसके बाद भी तुम राज्य की लालसा में हो चलो कोई बात नहीं मैं तुम्हे विजयी होने का आशीर्वाद देता हूँ और ऋषि ने एक सिक्का राजा की हथेली में रख दिया और कहा मुझे तुम सबसे अधिक दरिद्र लगे इस लिए मैंने ये तुम्हें दिया है |
ऋषि की बात सुनकर राजा को अपराधबोध हुआ और उसे सत्य की अनुभूति हुई कि निश्चित ही ऋषि सही कह रहे हैं और उसने युद्ध का विचार त्याग दिया और इस भूल के लिए ऋषि से क्षमा माँगी | शिष्य भी ये सब देख रहा था और उसने गुरु से कहा गुरुदेव आज मुझे आपकी बात का अर्थ समझ में आ गया है |
ऋषि मुस्कुराकर चल दिए |
0 comments:
Post a Comment