मित्रों संस्कृत में एक श्लोक है -- कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति । इसका अर्थ है पुत्र कपूत हो सकता है पर माता कभी कुमाता नहीं होती। उनका स्थान हम सबके जीवन में देवताओं से भी ऊपर है। हममें से कोई भी मातृ एवं पितृ ऋण से मुक्त नहीं हो सकते, चाहे हम सारी दुनियां ही क्यों ना उनके क़दमों में न्योछावर कर दें। ऐसे में यदि कोई हमारी माँओं पर मिथ्या लांछन लगाए तो हम कदापि नहीं बर्दास्त कर सकते। तो चलिए आज इसी सन्दर्भ में मैं आप सबको एक कथा सुनाता हूँ। .......
पत्नी बार बार मां पर इल्जाम लगाए जा रही थी और पति बार बार उसको अपनी हद में रहने की कह रहा था
लेकिन पत्नी चुप होने का नाम ही नही ले रही थी व् जोर जोर से चीख चीखकर कह रही थी कि
"उसने अंगूठी टेबल पर ही रखी थी और तुम्हारे और मेरे अलावा इस कमरें मे कोई नही आया अंगूठी हो ना हो मां जी ने ही उठाई है।।
बात जब पति की बर्दाश्त के बाहर हो गई तो उसने पत्नी के गाल पर एक जोरदार थप्पर दे मारा।
अभी तीन महीने पहले ही तो शादी हुई थी ।
पत्नी से थप्पर सहन नही हुआ, वह घर छोड़कर जाने लगी और जाते-जाते पति से एक सवाल पूछा कि तुमको अपनी मां पर इतना विश्वास क्यूं है..??
तब पति ने जो जवाब दिया उस जवाब को सुनकर दरवाजे के पीछे खड़ी मां ने सुना तो उसका मन भर आया। पति ने पत्नी को बताया कि
"जब वह छोटा था तब उसके पिताजी गुजर गए मां मोहल्ले के घरों मे झाडू पोछा लगाकर जो कमा पाती थी उससे एक वक्त का खाना आता था।
मां एक थाली में मुझे परोसा देती थी और खाली डिब्बे को ढककर रख देती थी और कहती थी मेरी रोटियां इस डिब्बे में है।
बेटा तू खा ले। मैं भी हमेशा आधी रोटी खाकर कह देता था कि मां मेरा पेट भर गया है मुझे और नही खाना है।
मां ने मुझे मेरी झूठी आधी रोटी खाकर मुझे पाला पोसा और बड़ा किया है।
आज मैं दो रोटी कमाने लायक हो गया हूं लेकिन यह कैसे भूल सकता हूं कि मां ने उम्र के उस पड़ाव पर अपनी इच्छाओं को मारा है,
वह मां आज उम्र के इस पड़ाव पर किसी अंगूठी की भूखी होगी ....
यह मैं सोच भी नही सकता। तुम तो तीन महीने से मेरे साथ हो, पर मैंने तो मां की तपस्या को पिछले पच्चीस वर्षों से देखा है...
यह सुनकर मां की आंखों से छलक उठे वह समझ नही पा रही थी कि बेटा उसकी आधी रोटी का कर्ज चुका रहा है या वह बेटे की आधी रोटी का कर्ज...
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