Monday, 9 January 2017

असली सुख दौलत में नहीं, जरूरतमंदों की निःस्वार्थ सेवा में है।


संत इब्राहिम अत्यंत नेक ईमानदार और प्रजा के सुख-दुख का ख्याल रखने वाले शासक थे। प्रजा की जरूरतों पर ध्यान देने के साथ-साथ वह भक्ति में भी लगे रहते थे। भक्ति से उनका अभिप्राय दुखी-दरिद्रों की सेवा से था। कुछ समय बाद वह सब कुछ त्याग कर फकीर बन गए और उन्होंने सेवा को ही अपना लक्ष्य मान लिया।
उनकी नेकी व कर्त्तव्यपरायणता की दूर-दूर तक प्रसिद्धि हो गई। बहुत से लोग इब्राहिम के पास अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आने लगे। एक दिन एक व्यक्ति उनके पास ढेर सारा सोना लेकर आया और बोला,'यह मैं आपके लिए लाया हूं। इसे स्वीकार कर लीजिए।' संत इब्राहिम को उस व्यक्ति के व्यवहार में अहंकार नजर आया। वह उससे बोले,'मैं किसी गरीब की एक कौड़ी भी नहीं ले सकता।' वह व्यक्ति हैरानी से बोला,'मैं गरीब नहीं हूं। मेरे पास तो दौलत के कई भंडार हैं।' इस पर इब्राहिम ने कहा, 'माना कि तुम्हारे पास बहुत दौलत है, किंतु और दौलत पाने की तुम्हारी इच्छा बाकी है या खत्म हो गई?' वह व्यक्ति बोला,'आप तो जानते ही हैं कि दौलत ऐसी चीज है जिसकी चाह कभी खत्म नहीं होती।'
उस शख्स के जवाब पर इब्राहिम गंभीर होकर बोले,'इतनी दौलत का मालिक होते हुए भी तुम्हारी और दौलत पाने की इच्छा है। भला इस समय तुमसे गरीब आदमी और कौन हो सकता है? इसलिए इस समय तुम्हें ही इसकी अधिक जरूरत है। इसे तुम अपने पास ही रखो। मुझे नहीं चाहिए।' यह सुनकर वह व्यक्ति शर्मिंदा हो गया। उसने अपने बर्ताव के लिए माफी मांगते हुए कहा,'मैं समझ गया। असली सुख दौलत जमा करने में नहीं जरूरतमंदों व गरीबों को बांटकर उनका दु:ख-दर्द दूर करने में है।' इब्राहिम ने उसे माफ कर दिया। उसी क्षण उस व्यक्ति ने सच्चे मन से मनुष्य की सेवा का संकल्प लिया। मित्रों, असली सुख दौलत में नहीं, जरूरतमंदों की निःस्वार्थ सेवा करने से मिलती है।

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