Tuesday, 14 March 2017

सदगुण ही संत की पहचान

संत की पहचान कैसे हो सकती है ? या फिर संत किसे कहा जाता है? अन्धविश्वास से किये गए कार्य को धर्म नकारता है, उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति को चमत्कार के आधार पर संत का दर्ज देना भी धर्म को मंजूर नहीं है. वर्तमान में धर्म क्षेत्र से बड़ी मात्र में चमत्कार की अपेक्षा की जाती है. जो चमत्कार करेगा वह संत है, या आज जनसामान्य जनता की धारणा  बन चुकी है. अगर ऐसा है तो एक जादूगर में और संत में क्या फर्क रह जाएंगा ,वास्तव में देखा जाए तो संत किसी चमत्कार तक सीमित नहीं, जिसकी  कोई सीमा नहीं है, जो अध्यात्म को धर्म के माध्यम से समाज में विकसित करते है. जो सदगुणों के परम शिखर पर विराजित होकर विरक्त भाव से जनकल्याण के लिए अलोकिक लीलाए करते है वह संत है. संत गजानन महाराज, साईं बाबा, बाबा ताजुद्दंद्दीन, स्वामी समर्थ, ऐसे संत है, जिन्होंने अध्यात्म के माध्यम से सामाजिक क्रांति का बिगुल बजाया । संत तुकाराम, नानक साहब, कबीर जी, मीराबाई, उन्होंने भक्ति के सहारे धर्म को स्थापित करने का प्रयास किया. वही विवेकानन्द , अरविन्द घोष, स्वामी दयानंद तीर्थ जैसे महापुरुषो ने अध्यात्म कि नींव  पर ज्ञानयोग का प्रकाश फैलाया।  लोकमान्य, भगतसिंग, महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषो ने अध्यात्म के विचार पर स्वतंत्रता की नीव रखी । इन सब की संत के रूप में पहचान है. मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करना यही एक मात्र मानव कल्याण की भावन हृदय में बसाकर उन्होंने सभी सुखो का त्याग कर एक परम्  लक्ष्य को चुना चुना जो असाधारण था।
संत तुकाराम संतो के शिरोमणि है, सामाजिक क्रांति का बिगुल फुकने वाले, साहित्य को समाज सुधार का एक बेहतरीन औजार बनाने वाले संत तुकाराम सहिष्णुता की परिकाष्ठा  थे|
 संत तुकाराम का अभंग वाड्मय अत्यंत आत्मपरक होने के कारण उसमें उनके पारमार्थिक जीवन का संपूर्ण दर्शन होता है। कौटुंबिक आपत्तियों से त्रस्त एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार आत्मसाक्षात्कारी संत बन सका, इसका स्पष्ट रूप तुकाराम के अभंगों में दिखलाई पड़ता है। उनमें उनके आध्यात्मिक
 चरित्र की साकार रूप में तीन अवस्थाएँ दिखलाई पड़ती हैं। प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम मन में किए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत तथा परमार्थ की ओर प्रवृत दिखलाई पड़ते हैं। दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस चरम नैराश्य का जो सविस्तार चित्रण अंभंग वाणी में हुआ हैं उसकी हृदयवेधकतामराठी भाषा में सर्वथा अद्वितीय है। किंकर्तव्यमूढ़ता के अंधकार में तुकाराम जी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत  हुआ और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकाराम ब्रह्मानंद में विभोर हो गए। उनके आध्यात्मिक जीवनपथ की यह अंतिम एवं चिरवांछित सफलता की अवस्था थी।
इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति की साधना पूर्ण होने के उपरांत तुकाराम के मुख से जो उपदेशवाणी प्रकट हुई वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण और अर्थपूर्ण है। स्वभावत: स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का  निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना ही था। इन्होने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्मसंरंक्षण के साथ साथ पाखंडखंडन का कार्य निरंतर चलाया। दाभिक संत, अनुभवशून्य पोथीपंडित, दुराचारी धर्मगुरु इत्यादि समाजकंटकों  की उन्होंने अत्यंत तीव्र आलोचना की है।
तुकाराम  केवल वारकरी संप्रदाय के ही शिखर नहीं वरन दुनियाभर के साहित्य में भी उनकी जगह असाधारण है। उनके 'अभंग' अंग्रेज़ी भाषा में भी अनुवादित हुए हैं। उनका काव्य और साहित्य यानी रत्नों का ख़ज़ाना है। यही वजह है कि आज 400 साल बाद भी वे आम आदमी के मन में सीधे उतरते हैं।  दुनियादारी निभाते हुए एक आम आदमी संत कैसे बन गया, साथ ही किसी भी जाति या धर्म में जन्म लेकर उत्कट भक्ति और सदाचार के बल पर आत्मविकास साधा जा सकता है। यह विश्वास आम इंसान के मन में निर्माण करने वाले थे- संत तुकाराम यानी तुकोबा। अपने विचारों, अपने आचरण और अपनी  वाणी से अर्थपूर्ण तालमेल साधते अपनी ज़िंदगी को परिपूर्ण करने वाले तुकोबा जनसामान्य को हमेशा किस प्रकार जीना चाहिए, इसकी सही प्रेरणा प्रदान करते हैं।
संत  तुकाराम महाराज (१६०८-१६५०),सत्रहवीं शताब्दी के मौलिक व प्रेरणास्पद व्यक्तित्व के धनी एक महान संत कवि थे जो भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ थे। आज उनकी जयंती पर शत् -शत् नमन |



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