Monday, 1 June 2015

मानवता के आदर्शों की रक्षा

एक नाविक अपनी नौका लेकर समुद्री यात्रा पर निकला। मौसम सुहावना था और उसके बीच लहरों का संगीत अलग ही आनंद प्रदान कर रहा था। उसकी नौका समुद्र के बीचोंबीच थी कि अचानक समुद्र में तेज लहरें उठने लगी। यह देख नाविक चिंतित हो उठा। उसने दूरबीन से आसपास नजर दौड़ाई तो उसे दक्षिण दिशा में थोड़ी दूरी पर एक द्वीप दिखाई दिया। उसने अपनी नौका की दिशा तुरंत उसी ओर मोड़ दी।हालांकि समुद्री तूफान प्रबल था और उस नाविक को अपनी नौका दक्षिण दिशा की ओर ले जाने में काफी मुश्किल हो रही थी।
ऐसे में मन ही मन वह उस घड़ी को कोसने लगा, जब उसने समुद्री यात्रा पर निकलने की ठानी थी। खैर, वह किसी तरह नौका को उस द्वीप तक ले जाने में कामयाब रहा। उसने लंगर के सहारे नौका को द्वीप के किनारे पर टिकाया और उससे उतरकर बाहर आ गया। वह बहुत थक चुका था।वहां पर एक ऊंची, अविचलित चट्टान खड़ी थी, जिसकी स्वच्छता को देखकर उसके मन को थोड़ी शांति मिली। थोड़ी देर वहीं सुस्ताने के बाद वह आगे बढ़ा और एक टेकरी पर खड़ा होकर चारों ओर दृष्टिपात करने लगा।
उसने देखा कि समुद्र की उत्ताल तरंगें उस चट्टान पर निरंतर आघात कर रही हैं, तो भी चट्टान के मन में न तो कोई रोष है और न ही विद्वेष। संघर्षपूर्ण जीवन पाकर भी उसे कोई ऊब और उत्तेजना नहीं है। यह देखकर नाविक का हृदय उस चट्टान के प्रति श्रद्धा से भर गया।उसने चट्टान से पूछा - 'तुम पर लगातार आघात हो रहे हैं, फिर भी क्या तुम्हें कभी निराशा नहीं होती?" तब चट्टान की आत्मा धीरे से बोली - 'तात, निराशा कई बार हमें अपने कर्तव्य-पालन से रोक देती है। यदि हम निराश हो गए होते तो एक क्षण ही सही, दूर से आए अतिथियों को विश्राम देने, उनका स्वागत करने से वंचित रह जाते।"
यह सुनकर नाविक का मन एक अनूठी प्रेरणा से भर गया। वह मन ही मन सोचने लगा - 'जीवन में चाहे कितने ही संघर्ष क्यों न आएं, अब मैं भी चट्टान की तरह ही जिऊंगा, ताकि हमारी न सही, भावी पीढ़ी और मानवता के आदर्शों की रक्षा तो हो सके।

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