यह जरुरी नहीं कि बड़े-बड़े कार्य करने से ही कोई व्यक्ति महान बन सकता है, हमारे द्वारा किये गए छोटे छोटे कार्य भी हमें महान बना सकते हैं। निन्मलिखित कथा इस बात को अक्षरसः चरितार्थ करती है। कथा कुछ इस तरह है -- यूनान देश के एक गाँव का लड़का जंगल में लकड़ियाँ काट के शाम को पास वाले शहर के बाजार मे बेचकर अपना गुजारा करता था. एक दिन एक विद्वान व्यक्ति बाजार से जा रहा था. उसने देखा कि उस बालक का गट्ठर बहुत ही कलात्मक रूप से बंधा हुआ है। उसने उस लड़के से पूछा- “क्या यह गट्ठर तुमने बांधा है?” लड़के ने जवाब दिया : “जी हाँ, मै दिनभर लकड़ी काटता हूँ, स्वयं गट्ठर बांधता हूँ और रोज शामको गट्ठर बाजार मे बेचता हूँ.” उस व्यक्ति ने कहा कि “क्या तुम इसे खोलकर इसी प्रकार दुबारा बांध सकते हो?”“जी हाँ, यह देखिए” – इतना कहेते हुए लडके ने गट्ठर खोला तथा बड़े ही सुन्दर तरीके से पुन: उसे बांध दिया. यह कार्य वह बड़े ध्यान, लगन और फूर्ती के साथ कर रहा था। लड्के की एकाग्रता, लगन तथा कलात्मक रीति से काम करने का तरीका देख उस व्यक्ति ने कहा “क्या तुम मेरे साथ चलोगे ? मै तुम्हे शिक्षा दिलाऊंगा और तुम्हारा सारा व्यय वहन करूँगा.”बालक ने सोच-विचार कर अपनी स्वीकृति दे दी और उसके साथ चला गया. उस व्यक्तिने बालक के रहने और उसकी शिक्षाका प्रबंध किया. वह स्वयं भी उसे पढ़ाता था.थोड़े ही समय में उस बालकने अपनी लगन तथा कुशाग्र बुद्धि के बल पर उच्च शिक्षा आत्मसात कर ली. बड़ा होने पर यही बालक युनान के महान दार्शनिक पाइथागोरस के नामसे प्रसिद्द हुआ। वह भला आदमी जिसने बालक की भीतर पड़ी महानता के बीज को पहचान कर उसे पल्लवित किया , वह था, वह था यूनान का विख्यात तत्त्व ज्ञानी डेमोक्रीट्स .इस कथा से अभिप्राय यह है कि हमें छोटे-छोटे कार्य भी लगन, मेहनत एवं इमानदारी से करने चाहियें , उसी में महानता के बीज छिपे होते है।
Monday, 25 January 2016
Monday, 18 January 2016
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Think "Out of the Box"
Many hundreds of years ago in a small Italian town, a merchant had the misfortune of owing a large sum of money to the moneylender. The moneylender, who was old and ugly, fancied the merchant's beautiful daughter so he proposed a bargain. He said he would forgo the merchant's debt if he could marry the daughter. Both the merchant and his daughter were horrified by the proposal.
The moneylender told them that he would put a black pebble and a white pebble into an empty bag. The girl would then have to pick one pebble from the bag. If she picked the black pebble, she would become the moneylender's wife and her father's debt would be forgiven. If she picked the white pebble she need not marry him and her father's debt would still be forgiven. But if she refused to pick a pebble, her father would be thrown into jail.
They were standing on a pebble strewn path in the merchant's garden. As they talked, the moneylender bent over to pick up two pebbles. As he picked them up, the sharp-eyed girl noticed that he had picked up two black pebbles and put them into the bag. He then asked the girl to pick her pebble from the bag.
What would you have done if you were the girl? If you had to advise her, what would you have told her? Careful analysis would produce three possibilities:
1. The girl should refuse to take a pebble.
2. The girl should show that there were two black pebbles in the bag and expose the moneylender as a cheat.
3. The girl should pick a black pebble and sacrifice herself in order to save her father from his debt and imprisonment.
The above story is used with the hope that it will make us appreciate the difference between lateral and logical thinking.
The girl put her hand into the moneybag and drew out a pebble. Without looking at it, she fumbled and let it fall onto the pebble-strewn path where it immediately became lost among all the other pebbles.
"Oh, how clumsy of me," she said. "But never mind, if you look into the bag for the one that is left, you will be able to tell which pebble I picked." Since the remaining pebble is black, it must be assumed that she had picked the white one. And since the moneylender dared not admit his dishonesty, the girl changed what seemed an impossible situation into an advantageous one.
MORAL OF THE STORY: Most complex problems do have a solution, sometimes we have to think about them in a different way.
Saturday, 16 January 2016
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आत्मसम्मान से पूर्ण जीवन जियें
मित्रों यह कथा हम सब के आत्मसम्मान की है और हमारा आत्मसम्मान कैसे हमें आत्मप्रेरित करती है। कथा कुछ इस तरह है ---
एक भिखारी किसी स्टेशन पर पेँसिलोँ से भरा कटोरा लेकर बैठा हुआ था। एक युवा व्यवसायी उधर से गुजरा और उसने कटोरे मेँ 50 रूपये डाल दिया, लेकिन उसनेँ कोई पेँसिल नहीँ ली। उसके बाद वह ट्रेन मेँ बैठ गया। डिब्बे का दरवाजा बंद होने ही वाला था कि अधिकारी एकाएक ट्रेन से उतर कर भिखारी के पास लौटा और कुछ पेँसिल उठा कर बोला, “मैँ कुछ पेँसिल लूँगा। इन पेँसिलोँ की कीमत है, आखिरकार तुम एक व्यापारी हो और मैँ भी।” उसके बाद वह युवा तेजी से ट्रेन मेँ चढ़ गया।
कुछ वर्षों बाद, वह व्यवसायी एक पार्टी मेँ गया। वह भिखारी भी वहाँ मौजूद था। भिखारी ने उस व्यवसायी को देखते ही
पहचान लिया, वह उसके पास जाकर बोला-” आप शायद मुझे नहीँ पहचान रहे हैं, लेकिन मैँ आपको पहचानता हूँ।”
उसके बाद उसने उसके साथ घटी उस घटना का जिक्र किया। व्यवसायी ने कहा- ” तुम्हारे याद दिलाने पर मुझे याद आ रहा है कि तुम भीख मांग रहे थे। लेकिन तुम यहाँ सूट और टाई मेँ क्या कर रहे हो?”
भिखारी नेँ जवाब दिया, ” आपको शायद मालूम नहीँ है कि आपने मेरे लिए उस दिन क्या किया। मुझ पर दया करने की बजाय मेरे साथ सम्मान के साथ पेश आये। आपने कटोरे से पेँसिल उठाकर कहा, ‘इनकी कीमत है, आखिरकार तुम भी एक व्यापारी हो और मैँ भी।’
आपके जाने के बाद मैँने बहूत सोचा, मैँ यहाँ क्या कर रहा हूँ? मैँ भीख क्योँ माँग रहा हूँ? मैंने अपनी जिँदगी को सँवारनेँ के लिये कुछ अच्छा काम करने का फैसला लिया। मैंने अपना थैला उठाया और घूम-घूम कर पेंसिल बेचने लगा । फिर धीरे -धीरे मेरा व्यापार बढ़ता गया , मैं कॉपी – किताब एवं अन्य चीजें भी बेचने लगा और आज पूरे शहर में मैं इन चीजों का सबसे बड़ा थोक विक्रेता हूँ।
मित्रों, याद रखेँ कि आत्म-सम्मान की वजह से ही हमारे अंदर प्रेरणा पैदा होती है या कहेँ तो हम आत्मप्रेरित होते हैँ। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने बारे मेँ एक श्रेष्ठ राय बनाएं और आत्मसम्मान से पूर्ण जीवन जीएं।
Friday, 15 January 2016
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मकर संक्रांति पर विशेष
जो प्रयत्न करता
हे उसे यश प्राप्त होता है- भय्यूजी महाराज
जीवन में यश कीर्ति और जीवन स्वाभिमान पूर्वक हो, यही
व्यक्ति की कामना होती है। आने वाले दिन अच्छे हो, अच्छा सोचेंगे तो अच्छा होगा। मकर
संक्रांति इसी अच्छे सोचने का उत्सव है। सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। अंधकार
से प्रकाश की और ले जाने वाला पर्व मकर संक्रांति है। आज राष्ट्र में, समाज में, हमारे
अपने व्यवहार से ही अंधकार निर्माण हो रहा है। प्रकाश की और जाना जीवन है और अंधकार
में रहना पतन है।
अंधकार अनेक प्रकार का होता है। हमारी मानसिकता का अंधकार,
अपने आचरण में आया अंधकार, अपने व्यवहार में आया अंधकार, अपनी सेवा भाव में आया अंधकार,
समाज और मानवता के बीच आया अंधकार। इस अंधकार से ऊपर उठकर चिंतन करना और उस अनुरूप
कार्य करने का संकल्प लेना ही मकर संक्रांति है।
मनुष्य को अपने जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए।
लक्ष्य के अनुरूप की गई साधना से ही मुक्ति का मार्ग प्राप्त होता है। व्यक्ति के लक्ष्य
नहीं होने से भटकाव है। हम देखते है कि हर व्यक्ति दौड़ रहा है। कभी-कभी उसे यह भी पता
नहीं होता है कि वह क्यों दौड़ रहा है। कही शादी में जाना है, तो दौड़ रहा है। किसी से
मिलने जाना है, तो दौड़ रहा है। किसी के अंतिम संस्कार में जाना है, तो दौड़ रहा है।
बस वहाँ तक पहुँचने का ही लक्ष्य है। कई बार व्यक्ति के पास एक ही लक्ष्य होता है कि
दिन कैसे व्यतीत करना है। फिर वह अपने सायंकाल का समय कैसे व्यतीत करना है उसमे खो
जाता है। शाम कैसे बीतेगी इस कल्पना में रहना ही चिंता है। परिस्थितियाँ जब तक हमारे
सामने नहीं आती तब तक उसके बारे में सोचना व्यर्थ है। व्यक्ति को सार्थक योजनाओं का
चिंतन करना चाहिए। प्रयत्न से ही यश प्राप्त होता है। अपयश की कल्पना भी नहीं करनी
चाहिए।
व्यक्ति के जीवन में कई बार ऐसा भी समय आता है, जब उसे
अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है। वह सोचता है कोई मुझसे प्रेम नहीं करता कोई मेरी बात
नहीं मानता। कोई मेरी और देखने को तैयार नहीं है परंतु यह मानसिकता ही व्यक्ति को घोर
अंधकार की और ले जाती है। मेरा जीवन कितना सार्थक है। परिस्थितियों को कैसे बदला जा
सकता है। उसके लिए संयम आवश्यक है। नौ दिन व्यक्ति कठिन उपवास करता है। ईश्वर को धन्यवाद
देता है कि मुझसे यह कठिन तप करवा लिया। आपकी कृपा मुझ पर रहे और स्वयं को धन्य समझता
है। वही व्यक्ति यदि ऑफिस से आने के बाद चाय मिलने में देर हो जाती है तो क्रोधित हो
जाता है। यह परिस्थिति वश होता है। व्यक्ति को जीवन की सार्थकता के लिए वैसी परिस्थिति
निर्मित करनी होगी। प्रत्येक परिस्थिति को पहचानने वाला व्यक्ति आज पत्थर का हो गया
है। इसलिए आज सारी विसंगतियां निर्माण हो रही है। पर पत्थर के भीतर भी जल का स्त्रोत
होता है, सुप्त पड़ी नदी में भी पानी का स्त्रोत है। परिस्थिति के कारण वह नदी सुख गई
है। आज परिस्थिति के कारणों से व्यक्ति एक दूसरे से छल कर रहा है। नकारात्मकता निर्माण
हो रही है। समाज की नकारात्मकता से राष्ट्र में भी नकारात्मकता निर्माण हो गई है। हम
कहते है राष्ट्र में कुछ सही नहीं हो रहा है। यह नकारात्मकता तब खत्म होगी जब व्यक्ति
अपने चिंतन की सकारात्मकता देगा। सकारात्मक व्यवहार करेगा। व्यक्ति सामान्य जनो में
सामान्य सा आचरण करेगा।
श्रीकृष्ण यदि सिंहासन पर बैठकर राज्य करते और सिर्फ
आदेश ही देते तो वे हमें अपने नहीं लगते। परंतु वे सामान्य व्यक्ति की तरह सामान्य
से ग्वाल बालों में रहे, गौएँ चराने जाते थे। श्रीराम ने वनवासी जीवन को अपनाकर रीछ
और वानरों को अपने साथ रखा। उनके गुणों का विस्तार करके लंका में राक्षसी प्रवत्तियों
को खत्म करने के लिए वानरों की सहायता ली। यह हमारे संस्कृति का गौरव है इसलिए श्रीराम
मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजे जाते है। आज शिक्षा अर्थ के आधार पर हो गई है।
इसलिए व्यक्ति संवेदनाओं से दूर होता जा रहा है। समाज में वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम बढ़
रहे है, जो स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं है। ऐसी नकारात्मक वृत्ति को हमें हटाना होगा।
नकारात्मकता के कारण ही समाज में एक दुसरो को निचा दिखाने की प्रवत्ति व्याप्त हो गई
है। कई बार दिल्ली में हुई घटना के बारे में लोग मुझसे पूछते है कि इस बारे में आपकी
क्या राय है? यह भी कहते है कि महिलाओं का पहनावा इसके लिए जिम्मेदार है। उस समय उन्हें
एक उदाहरण देता हूँ वह यह है कि हमारी संस्कृति में प्रत्येक का सम्मान करने की परंपरा
है। संस्कृति की विशेषता है - सम्मान।
सम्मान को दर्शाने के लिए ही स्वयं भगवान ने अर्धनारी
नटेश्वर का अवतार लिया। अर्थात प्रेम और पुरुषार्थ। यदि तुमने नारी से बोलते समय मातृत्व
शक्ति का भाव जाग्रत कर लिया तो वासना कभी निर्माण होगी ही नहीं। मातृत्व शक्ति का
सम्मान हो, हमारे मन में यही विचार होना चाहिए तभी हम नारी का सम्मान कर सकते है। आरोप
लगाने की शैली हमारे जीवन में अधिक दिखायी देती है।
पहले भी षड़यंत्र होता था। परंतु अब षड़यंत्र घर से प्रारंभ
होकर राष्ट्र तक है। संगठन से लेकर व्यक्ति तक चल रहा है। एक दूसरे को नीचा दिखाने
की होड़ लगी है। अपनी चिंता उसी में है कि सामने वाले व्यक्ति को नीचा कैसे दिखाएँ।
कई बार व्यक्ति मुझसे प्रश्न पूछते है, परन्तु प्रश्न वह अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा
को शांत करने के लिए नहीं पूछते बल्कि वे अपने अहंकार स्वरुप पूछते है। प्रश्न पूछने
से तुम्हारे भीतर का विवेकानंद यदि जाग्रत होता है, तुम्हारी जिज्ञासा शांत होती है
तो वह प्रश्न पूछना भी सार्थक होता है। प्रश्न पूछकर सामने वाले व्यक्ति को नीचा मत
दिखाओ, उसे पीड़ा मत दो।
हम एक दूसरे की हैसियत दिखाते है चाहे वह अर्थ के धरातल
पर हो, चाहे धर्म क्षेत्र में हो, चाहे राजनीति के क्षेत्र मे। घर में है तो अस्तित्व
की हैसियत एक दूसरे के सम्मान की हैसियत दिखाते है। क्या यही है हमारी स्वतंत्रता?
क्या हमारे राष्ट्रवीरों ने धर्मवीरों ने इसी समाज की कल्पना की थी? हमारे राष्ट्रवीरों
ने तो कुछ अलग राष्ट्र की कल्पना की थी। हमारे स्वार्थो ने इस समाज को राष्ट्र को विषम
परिस्थितियों में पुनः लाकर खड़ा कर दिया है। हमें परिस्थितियों को बदलना होगा।
जो मानवीयता का विचार करके परिस्थितियों के अनुकूल आचरण
करता है, वही धर्म के अनुकूल आचरण करता है। धर्म जीवन जीने की पद्धति है इस पद्धति
को अधिक सुन्दर अधिक उपयोगी बनाएँ, इसका विचार हमें करना होगा। क्योंकि प्रयत्न करने
पर ही सफलता प्राप्त होती है। प्रयत्न नहीं करेंगे, केवल चिंता करेंगे तो उससे न हम
अपना भला कर सकेंगे न दूसरों का। अतः लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सही चिंतन की धारा
अपनाकर प्रयत्न करने ही होंगे, यही संकल्प अनेक मानसिक अंधकारों से हमें दूर रखेगा
और हम सूर्य की तेजस्वी किरणों में स्वयं को सकारात्मक चिंतन देने वाले इस देश के नागरिक
होंगे।
जयहिंद, जय भारत
Monday, 11 January 2016
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सच को जाने बिना किसी के व्यवहार पर कटाक्ष मत करें
एक 25 वर्ष का लड़का ट्रेन में सफ़र करते समय खिड़की से बाहर के नज़ारे को देख
रहा था|वह अचानक चिल्लाया – “पापा, वो देखो पेड़ पीछे जा रहे है!”पिताजी
मुस्कराए | पास में बैठा एक व्यक्ति, लड़के के इस बचपने व्यवहार को देखकर
हैरान था और उसे लड़के पर दया आ रही थी|थोड़ी देर बाद लड़का फिर ख़ुशी से
चिल्लाया – “देखो पापा, बादल हमारे साथ चल रहे है!”अब पास में बैठे व्यक्ति
से रहा नहीं गया और उसने कहा – “आप अपने बेटे को किसी अच्छे डॉक्टर को
क्यों नहीं दिखाते?”लड़के के पिता ने कहा – “हम अभी अस्पताल से ही आ रहे है|
दरअसल मेरा बेटा जन्म से ही अँधा था और आज ही उसको आँखे मिली है| आज वह
पहली बार इस संसार को देख रहा है|”इस मार्मिक प्रसंग को पढ़ कर आपके मन में
भी विचारों का सृजन हुआ होगा। मित्रों, हर व्यक्ति की अपनी एक कहानी होती
है | सम्पूर्ण सच को जाने बिना किसी के भी व्यवहार के बारे में निर्णय नहीं
करना चाहिए | हो सकता है कि जो दिख रहा है वह सम्पूर्ण सच न हो
Saturday, 9 January 2016
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जो बदलता है वही आगे बढ़ता है
जीवन में अनुभवों से सीखकर स्वयं को बदलने की जरूरत होती है। अगर हम बदलना बंद कर देते हैं तो एक ही जगह रुक जाते हैं। जो बदलता है वही आगे बढ़ता है। जीवन को बदलाव की प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ता है। अगर बदलाव आपका लक्ष्य नहीं है तो फिर जीवन ठहर जाएगा। बदलाव नहीं होगा तो जीवन की धारा रुक जाएगी। हर अनुभव हमें प्रेम, धैर्य और आनंद प्राप्त करना सिखाता है। अनुभव ही हमें बहुत सी चीजें सिखाते हैं। हमारे विकास में सहायक होते हैं। हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि हम ‘संसार’ को ‘निर्वाण’ में बदलें। या दूसरे शब्दों में कहें कि ‘बंधन’ को ‘मुक्ति’ में बदलें। ऐसा होने के लिए जरूरी है कि आत्म स्मरण या खुद को याद रखें।
अगर हम अपने भीतर के विचारों, निष्कर्ष क्षमता, भावनाओं, पसंद-नापसंद को लगातार बनाए या जगाए रखते हैं तो एक नई तरह का सत्य हमारे सामने खुलता है और हम अपनी ही कैद से मुक्त होते जाते हैं। दुनिया में दो तरह के डर होते हैं। एक सामने उपस्थित डर और एक सोचा हुआ डर। जब एक बाघ हमारे सामने आ जाए तो डर होगा वह वास्तविक डर होगा।
भविष्य को लेकर मन में पैदा होने वाला डर अवास्तविक या सोचा हुआ डर है। लेकिन भविष्य को लेकर जो डर हमारे भीतर होता है वह बहुत रोचक और रोमांचक होता है क्योंकि हम भविष्य के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं। हम सिर्फ अनुमान लगाते हैं।
Tuesday, 5 January 2016
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सत्संग को अपने आचरण में आत्मसात करें
एक संत ने अपने दो शिष्यों को दो डिब्बों में मूँग के दाने दिये और कहाः "ये मूँग हमारी अमानत हैं। ये सड़े गले नहीं बल्कि बढ़े-चढ़े यह ध्यान रखना। दो वर्ष बाद जब हम वापस आयेंगे तो इन्हें ले लेंगे।" - संत तो तीर्थयात्रा के लिए चले गये। इधर एक शिष्य ने मूँग के डिब्बे को पूजा के स्थान पर रखा और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरे शिष्य ने मूँग के दानों को खेत में बो दिया। इस तरह दो साल में उसके पास बहुत मूँग जमा हो गये।
दो साल बाद संत वापस आये और पहले शिष्य से अमानत वापस माँगी तो वह अपने घर से डिब्बा उठा लाया और संत को थमाते हुए बोलाः "गुरूजी ! आपकी अमानत को मैंने अपने प्राणों की तरह सँभाला है। इसे पालने में झुलाया, आरती उतारी, पूजा-अर्चना की..."
संत बोलेः "अच्छा ! जरा देखूँ त सही कि अन्दर के माल का क्या हाल है ?"
संत ने ढक्कन खोलकर देखा तो मूँग में घुन लगे पड़े थे।
संत ने शिष्य को मूँग दिखाते हुए कहाः "क्यों बेटा ! इन्ही घुनों की पूजा अर्चना करते रहे इतने समय तक !"
शिष्य बेचारा शर्म से सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा। इतने में संत ने दूसरे शिष्य को बुलवाकर उससे कहाः "अब तुम भी हमारी अमानत लाओ।"
थोड़ी देर में दूसरा शिष्य मूँग लादकर आया और संत के सामने रखकर हाथ जोड़कर बोलाः "गुरूजी ! यह रही आपकी अमानत।"
संत बहुत प्रसन्न हुए और उसे आशीर्वाद देते हुए बोलेः "बेटा ! तुम्हारी परीक्षा के लिए मैंने यह सब किया था। मैं तुम्हें वर्षों से जो सत्संग सुना रहा हूँ, उसको यदि तुम आचरण में नहीं लाओगे, अनुभव में नहीं उतारोगे तो उसका भी हाल इस डिब्बे में पड़े मूँग जैसा हो जायेगा। इस कथा का अभिप्राय यह कि हमें गुरु से प्राप्त ज्ञान का अपने आचरण में आत्मसात कर, उसे अपने दैनिक व्यवहार में अपनाना चाहिए।
Saturday, 2 January 2016
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अपनी वाणी, वर्तन एवं व्यवहार को मधुर रखें
दवे साहेब विश्वविद्यालय के विद्यार्थियो के बीच बहुत प्रसिद्द थे . उनकी वाणी, वर्तन तथा मधुर व्यवहार से कॉलेज के प्राध्यापकों एवं विद्यार्थियो उन्हें ‘वेदसाहेब’ से संबोधन करते थे. ऐसे भी वे संस्कृत के प्राध्यापक थे, और उनकी बातचीत में संस्कृत श्लोक-सुभाषित बारबार आते थे. उनकी ऐसी बात करने की शैली थी जिससे सुनने वाले मुग्ध हो जाते थे.एक दिन विज्ञान के विद्यार्थियो की कक्षा में अध्यापक नहीं थे तो वे वहाँ पहुंच गए. सभी विद्यार्थियों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया और अपने स्थान पर बैठ गए। कक्षा प्रतिनिधि ने दवे साहेब से कहा , ” सर , कॉलेज के समारोहों में हमने आपको कई बार सुना है. लेकिन आज आपसे करीब से बातचीत करने का मौका मिला है. कृपया संस्कृत साहित्य में से
कुछ ऐसी बातें बताइये जो हमारे दैनिक जीवन में काम आये .दवे साहेब मुस्कराए और बोले : ” पृथिव्याम त्रिनिरत्नानि जलं, अन्नं, सुभाषितम ||यानि कि अपनी इस धरती पर तीन रत्न हैं – जल,अन्न तथा अच्छी वाणी।बिना जल तथा अन्न हम जी नहीं सकते, लेकिन सुभाषित या अच्छी वाणी एक ऐसा रत्न है जो हमारी बोली को श्रृंगारित करता है. हम अपने विचारों को सरलता से तथा स्पष्टता से सुभाषित द्वारा सबके सम्मुख रख सकते है.दवे साहब अभी बोल ही रहे थे कि किसी विद्यार्थी ने प्रश्न किया , ” हम वाणी का प्रयोग कैसे करें ? तथा हमें किस तरह के लोगों का संग करना चाहिए ?” पुत्र , तुमने बड़ा ही अच्छा प्रश्न किया हैं , इसका उत्तर मैं तीन श्लोकों के माध्यम से देना चाहूंगा :तुम्हारा पहला प्रश्न- वाणी का प्रयोग कैसे करें ?
यस्तु सर्वमभिप्रेक्ष्य पुर्वमेवाभिभाषते |स्मितपुर्वाभिभाषी च तस्य लोक: प्रसीदति ||देवों के गुरु बृहस्पतिजी हमें इस श्लोक से शिक्षा देते है कि, ‘लोकव्यवहार में वाणी का प्रयोग बहुत ही विचारपूर्वक करना चाहिए. बृहस्पतिजी स्वयं भी अत्यंत मृदुभाषी एवं संयतचित्त है. वे देवराज इन्द्रसे कहते है : ‘राजन ! आप तो तीनों लोकों के राजा हैं, अत: आपको वाणी के विषयमें बहुत ही सावधान रहना चाहिए. जो व्यक्ति दूसरोँ को देखकर पहले स्वयं बात करना प्रारंभ करता है और मुस्कराकर ही बोलता है, उस पर सभी लोग प्रसन्न हो जाते है.’
यो हि नाभाषते किंचित सर्वदा भृकुटीमुख: |द्वेष्यो भवति भूतानां स सांत्वमिह नाचरन ||
इसके विपरीत जो सदा भौहें टेढ़ी किए रहता है, किसी से कुछ बातचीत नहीं करता, बोलता भी है तो टेढ़ी या व्यंगात्मक वाणी बोलता है, मीठे वचन न बोलकर कर्कश वचन बोलता है, वह सब लोगों के द्वेष का पात्र बन जाता है.’अब तुम्हारा दूसरा प्रश्न – हमें किसका संग करना चाहिए ?सद्भि: संगं प्रकुर्वीत सिद्धिकाम: सदा नर: |नासद्भिरिहलोकाय परलोकाय वा हितम् ||देवों के गुरु बृहस्पतिजी बताते है कि ‘जो मनुष्य चारों पुरुषार्थ [यानि कि धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष] की सिद्धि हो ऐसी चाहत रखता हो तो उसे सदैव सज्जनों का ही साथ करना चाहिए. दुर्जनों के साथ रहने से इहलोक तथा परलोकमें भी हित नहीं है.’ ”दवेसाहेब तथा विद्यार्थियो का संवाद पूरा हुआ और सभी विद्यार्थियो के मुखमंडल पर आनंद की उर्मी थी, आज सभी विद्यार्थियों को एक अच्छी सीख मिल चुकी थी।
कुछ ऐसी बातें बताइये जो हमारे दैनिक जीवन में काम आये .दवे साहेब मुस्कराए और बोले : ” पृथिव्याम त्रिनिरत्नानि जलं, अन्नं, सुभाषितम ||यानि कि अपनी इस धरती पर तीन रत्न हैं – जल,अन्न तथा अच्छी वाणी।बिना जल तथा अन्न हम जी नहीं सकते, लेकिन सुभाषित या अच्छी वाणी एक ऐसा रत्न है जो हमारी बोली को श्रृंगारित करता है. हम अपने विचारों को सरलता से तथा स्पष्टता से सुभाषित द्वारा सबके सम्मुख रख सकते है.दवे साहब अभी बोल ही रहे थे कि किसी विद्यार्थी ने प्रश्न किया , ” हम वाणी का प्रयोग कैसे करें ? तथा हमें किस तरह के लोगों का संग करना चाहिए ?” पुत्र , तुमने बड़ा ही अच्छा प्रश्न किया हैं , इसका उत्तर मैं तीन श्लोकों के माध्यम से देना चाहूंगा :तुम्हारा पहला प्रश्न- वाणी का प्रयोग कैसे करें ?
यस्तु सर्वमभिप्रेक्ष्य पुर्वमेवाभिभाषते |स्मितपुर्वाभिभाषी च तस्य लोक: प्रसीदति ||देवों के गुरु बृहस्पतिजी हमें इस श्लोक से शिक्षा देते है कि, ‘लोकव्यवहार में वाणी का प्रयोग बहुत ही विचारपूर्वक करना चाहिए. बृहस्पतिजी स्वयं भी अत्यंत मृदुभाषी एवं संयतचित्त है. वे देवराज इन्द्रसे कहते है : ‘राजन ! आप तो तीनों लोकों के राजा हैं, अत: आपको वाणी के विषयमें बहुत ही सावधान रहना चाहिए. जो व्यक्ति दूसरोँ को देखकर पहले स्वयं बात करना प्रारंभ करता है और मुस्कराकर ही बोलता है, उस पर सभी लोग प्रसन्न हो जाते है.’
यो हि नाभाषते किंचित सर्वदा भृकुटीमुख: |द्वेष्यो भवति भूतानां स सांत्वमिह नाचरन ||
इसके विपरीत जो सदा भौहें टेढ़ी किए रहता है, किसी से कुछ बातचीत नहीं करता, बोलता भी है तो टेढ़ी या व्यंगात्मक वाणी बोलता है, मीठे वचन न बोलकर कर्कश वचन बोलता है, वह सब लोगों के द्वेष का पात्र बन जाता है.’अब तुम्हारा दूसरा प्रश्न – हमें किसका संग करना चाहिए ?सद्भि: संगं प्रकुर्वीत सिद्धिकाम: सदा नर: |नासद्भिरिहलोकाय परलोकाय वा हितम् ||देवों के गुरु बृहस्पतिजी बताते है कि ‘जो मनुष्य चारों पुरुषार्थ [यानि कि धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष] की सिद्धि हो ऐसी चाहत रखता हो तो उसे सदैव सज्जनों का ही साथ करना चाहिए. दुर्जनों के साथ रहने से इहलोक तथा परलोकमें भी हित नहीं है.’ ”दवेसाहेब तथा विद्यार्थियो का संवाद पूरा हुआ और सभी विद्यार्थियो के मुखमंडल पर आनंद की उर्मी थी, आज सभी विद्यार्थियों को एक अच्छी सीख मिल चुकी थी।
Friday, 1 January 2016
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Alarming decline in girl child sex ratio
If the latest report on Child sex ratio in the country is anything to go by, the fairer sex in our country continues to get unfair treatment and the society as a whole is responsible for the same, despite government’s initiatives to promote birth of girl child and its `Save Daughter campaign’.
It is indeed shameful to learn that despite daughters/girls making India proud in all spheres of life and knowing the fact that they are no less competent than men, preference for sons and the desire for smaller families has driven down the number of girls - and women - to an all time low in the past several decades. According to report, the child sex ratio for the whole country now stands at 918, dipping further from 927 in 2001, which is lowest since 1961.
As compared to Christians and Muslims, the child sex ratio is more alarming among Hindus where it has declined from 925 in 2001 to 913 in the latest census data. This decline is the biggest among all religious communities.
The steep decline in child sex ratio has once again pointed to the fact that the place of women in our society is far from satisfactory and we all need to be blamed for this reverse trend in child sex ratio.
It is high time we all need to take collective steps to save girl child and encourage their birth for a balanced development of society and nation