Saturday, 27 December 2014

श्रेष्ठता का अहंकार

रामकृष्ण परमहंस को अध्यात्म पर चर्चा करना बहुत अच्छा लगता था। अक्सर वे विभिन्न संप्रदायों के संतों से मिलते और गंभीर चर्चा शुरू कर देते थे। एक बार वे नागा गुरु तोतापुरी के साथ बैठे थे। माघ का महीना था और धूनी जल रही थी। ज्ञान की बातें हो रही थीं। तभी एक माली वहां से गुजरा और उसने धूनी से अपनी चिलम में भरने के लिए कुछ कोयले ले लिए। तोतापुरी जी को माली का इस तरह आना और बिना पूछे पवित्र धूनी छूना बहुत बुरा लगा। उन्होंने न केवल माली को भला-बुरा कहा, बल्कि दो-तीन चांटे भी मार दिए। माली बेचारा हक्का-बक्का रह गया।

परमहंस की धूनी से वह हमेशा ही कोयले लेकर चिलम भरा करता था। इस घटना पर रामकृष्ण परमहंस जोर-जोर से हंसने लगे। तब नागा गुरु ने उनसे सवाल किया, 'इस अस्पृश्य माली ने पवित्र अग्नि को छूकर अपवित्र कर दिया। तुम्हें भी इसे दो हाथ लगाने चाहिए थे, पर तुम तो हंस रहे हो।'

परमहंस ने जवाब दिया, 'मुझे नहीं पता था कि किसी के छूने भर से कोई वस्तु अपवित्र हो जाती है। अभी तक आप 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' कह कर मुझे ज्ञान दे रहे थे कि समस्त विश्व एक ही परब्रह्म के प्रकाश से प्रकाशमान है। लेकिन आपका यह ज्ञान तब कहां चला गया, जब आपने मात्र धूनी की अग्नि छूने के बाद माली को भला-बुरा कहा और पीट दिया। आप जैसे आत्मज्ञानी को देखकर सिर्फ हंसी ही आ सकती है। यह सुनकर नागा गुरु बहुत लज्जित हुए। उन्होंने माली से क्षमा मांगी और परमहंस के सामने प्रतिज्ञा की कि आगे ऐसी गलती कभी नहीं करेंगे।

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