सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामलाम
वर्षों पहले रष्ट्र गीत के माध्यम से हमने `सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामलाम' भारत एवं इसकी धरा की परिकल्पना की थी। दुर्भाग्यवश अंधाधुंध औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण एवं शहरीकरण ने हमारी इस पवित्र धरा को ना सिर्फ `दूषित, प्रदूषित एवं कलंकित' कर दिया है बल्कि इसे रहने हेतु सर्वथा अनुपयुक्त बना दिया है। आज हमें साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा तक नसीब नहीं है।
बहुत साल पहले राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी ने देशवासियोँ से आधुनिक तकनीकों का अन्धानुकरण करने के विरुद्ध सचेत किया था। गाँधीजी मानते थे कि पृथ्वी, वायु, जल तथा भूमि हमारे पूर्वजों से मिली सम्पत्ति नहीं है। वे हमारे बच्चों तथा आगामी पीढ़ियों की धरोहरें हैं। हम उनके ट्रस्टी भर हैं। हमें वे जैसी मिली हैं उन्हें उसी रूप में भावी पीढ़ी को सौंपना होगा।
गाँधी जी का यह भी मानना था कि पृथ्वी लोगों की आवश्यकता की पूर्ति के लिये पर्याप्त है किन्तु लालच की पूर्ति के लिये नहीं। उनका मानना था कि विकास के त्रुटिपूर्ण ढाँचे को अपनाने से असन्तुलित विकास पनपता है। यदि असन्तुलित विकास को अपनाया गया तो धरती के समूचे प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो जाएँगे। वह जीवन के समाप्त होने तथा महाप्रलय का दिन होगा।
असंतुलित विकास, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण के कारण आज सम्पूर्ण प्रकृति संकट के दौर से गुजर रही है। उसे पृथ्वी के प्रत्येक नागरिक के योगदान की आवश्यकता है। प्रातःकाल से लेकर सायं तक प्रकृति का किसी न किसी रूप में दोहन हो रहा है, पर उसकी भरपाई हेतु किए जाने वाले कार्य नगन्य ही हैं।
आज विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर हम में से हर किसी को हमारी पवित्र धरा को हरा भरा बनाने के लिए एवं अनगिनत मनुष्य एवं आधुनिकता प्रदत्त विकारों से मुक्त करने के लिए, इसके पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए, इसे स्वस्थ जीवन जीने के योग्य बनाने के लिए, संकल्प लेकर ठोस एवं सकारात्मक प्रयास करने की जरुरत है, अन्यथा प्रकृति अपना बदला तो लेगी ही।
पृथ्वी दिवस की कल्पना में हम उस दुनिया का स्वप्न साकार होना देखते हैं जिसमें दुनिया भर का हवा का पानी प्रदूषण मुक्त होगा। समाज स्वस्थ और खुशहाल होगा। नदियाँ अस्मिता बहाली के लिये मोहताज नहीं होगी। धरती रहने के काबिल होगी। मिट्टी, बीमारियाँ नहीं वरन सोना उगलेगी।
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