Thursday, 24 December 2015

भगवान दत्तात्रेय के सद्गुणों का चिंतन करना चाहिए

  हमारी यह भूमि वंदनीय है। यहां सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग तक स्वयं ईश्वर ने अवतार लिया है। सृष्टि रचयिता ने भक्ति-ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। कभी भक्ति का मर्म हमें समझाया तो कभी तत्व को आत्मसात करने की बात कही। ईश्वर अवतारों में भगवान दत्तात्रेय का अवतार बहुत पहले हुआ है। सतयुग के इस अवतार का प्रयोजन था व्यक्ति ज्ञान तत्व के माध्यम से विकास करे। श्री ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का एक स्वरुप भगवान दत्तात्रेय है, जो क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार के देवता है। वे सर्वशक्तिमान हैं, वे गुणातीत है। 
भगवान दत्तात्रेय महर्षि अत्रि एवं माता अनुसुइया के पुत्र है। हम देखते है कि कोई शिव को मानता है तो कोई विष्णु की उपासना करता है तो कोई इस प्रकृति को ही देव तत्व बनाता है। जब हम तीनों को एकत्र करते है तो वही भगवान दत्तात्रेय का चिंतन एवं स्मरण है। तीनों शक्तियों की एकरूपता हमें नवीन ऊर्जा प्रदान करती है। भगवान दत्तात्रेय तीनों स्वरूपों में हैं। प्रथम ब्रह्मा जो ज्ञान के रूप में हैं। ज्ञान को कर्म के रूप में सार्थक करने के लिए भगवान विष्णु हैं और कर्म को आचरण में लाकर उस आनंद अवस्था को समाधि में प्रकट करने के लिए महेश रूप है। इन तीनों तत्वों से मिलकर बना हुआ जीवन भगवान दत्तात्रेय कहा जाता है। उनकी भक्ति परंपरा, योग तत्व अति प्राचीन है, परंतु सद्गुणों को धारण करने के कारण वे आज भी शाश्वत हैं, स्मरणीय हैं।
भगवान दत्तात्रेय को स्मृतगामी इसलिए कहा जाता है कि उनके गुणों को चिंतन कर हम अपने गुणों को बढ़ाते हैं। सद्गुणों को धारण करने की प्रेरणा हमें भगवान दत्तात्रेय से प्राप्त होती है। योगी लोग उन्ही का ध्यान करते हैं। दत्तात्रेय का चिंतन ही ज्ञान प्राप्त कराकर इस जगत में रहते हुए निर्लिप्त रहने की प्रेरणा देता है। अपने जीवन में अनेक गुरुओं को बनाकर उन्होंने मानव जाति को निरंतर ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रेरित किया है। इसी से आज तक व्यक्ति मानव कल्याण के कार्यो में रहकर अपना जीवन सफल मानता है।
सर्वशक्तिमान यह जानता है कि हमारे अंदर कौन सी भावना है, जो हमें मानव कल्याण की और ले जाती है। आज जहां हम अपने संबंधों को संकुचित कर लेते है और स्वार्थ के धरातल पर अपना चिंतन करते हैं तो यह चिंतन और स्वार्थपूर्ण जीवन हमें निश्चित ही पतन के रास्ते पर ले जाता है। व्यक्ति का पतन, समाज का पतन राष्ट्र के टुकडे-टुकडे कर देता है। हमारा राष्ट्र टुकडे-टुकडे होने से बचे, इसके लिए चिंतन का दायरा विस्तृत करना होगा। इसके लिए हमें भगवान दत्तात्रेय के सद्गुणों को आत्मसात करना होगा।
सद्गुरु दत्त सृष्टि के पालनहार है। वे ही सदैव वंदनीय हैं। दत्त अर्थात जगतगुरु, जो हमारे अंतर में गुरु तत्व स्थापित करता है। उनके उपदेशों को आचरण में लाने पर असीम शांति प्राप्त होती है। 'अ' अर्थात जो मध्य से अंत तक पवित्र है, 'व' अर्थात जिसने वासना का त्याग किया है, 'धू' अर्थात चित्त के पापों से दूर रहने वाला, 'त' अर्थात जिसने तत्व शक्ति को धारण किया हो। इस संसार में जितने भी तत्व है, उन सबके शक्तिपुंज भगवान दत्तात्रेय है। वे अपने चौबीस गुरुओं के लिए प्रसिद्ध है। गुरुओं के गुरु, जो गुरु तत्व को मनुष्य को प्रदान करते हैं। मनुष्य तो अज्ञानी है, उसे हर क्षण विनम्रता का भाव रखते हुए जीवन में सीखने की प्रेरणा लेना चाहिए। इसलिए कि हम अपने कर्म सोच-विचार कर करें। भगवान दत्तात्रेय के इसी भाव से हमारे अंतर में सेवा का भाव जाग्रत होता है। सेवा से त्याग और समर्पण की भावना प्रबल होती है। आज व्यक्ति अपने सुख के लिए सब कुछ चाहता है, परंतु दूसरों के लिए नहीं सोचता, इसलिए आज समाज का संतुलन बिगड़ रहा है।
सद्गुरु हमें सद्गुणी प्रवत्ति की और ले जाते हैं, यह प्रकृति सद्गुणी हैं। हमारे अंदर अवगुणों से अधिक सद्गुण हैं, फिर हम क्यों अपनी अवगुणी प्रवत्ति पर नियंत्रण नहीं कर पाते ? हमें विचार करना होगा कि भगवान दत्तात्रेय के कौन से गुण लेकर हम अच्छे इंसान बनकर मानवीय धर्म स्थापित कर सकते हैं। सद्गुरु दत्तात्रेय का मूल आधार ज्ञान दान है। एक तपस्वी को, एक ज्ञानी को यह देखना होगा कि वर्तमान में ऐसी कौन सी अवस्था है, जिसमें समाज का एक आधार हमारे सामने हो। इस समाज के पास आँखे हैं, परंतु दृष्टी नहीं। मात्र भाौतिक विकास के आधार पर आधुनिकता का आवरण ओढ़ना विकास नहीं हैं। विकास का अर्थ व्यक्ति का समुचित विकास, अंतर का विकास है। मानवता की मूल अभिव्यक्ति का आधार ज्ञान है। ज्ञान तत्व का नाम ही शिक्षा है।
सद्गुरु दत्तात्रेय प्रत्येक स्थिति में ज्ञानमयी हैं। ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। ज्ञान चर्चा का विषय न होकर आत्मसात करने की प्रक्रिया है। आनंद प्राप्त कर हम परमानंदी अवस्था को धारण कर सकते हैं। वर्तमान का चिंतन क्या है ? समाज में हमारे संबंधों का आधार क्या है ? यह हमें जानना होगा। सृष्टि से विश्व का निर्माण हुआ है। विश्व में अनेक राष्ट्रों से समाज, समाज से परिवार और व्यक्ति है। व्यक्ति को जीवन जीने के लिए आनंद है। रिश्ते, नाते है। उत्सव, पर्व है। भोग है, विलासिता है, ऐश्वर्य है, परन्तु अस्तित्व के लिए उसे सद्गुणी व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है। हम अपने संतो के जीवन चरित्र को देखते हैं तो पाते है कि उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा, परंतु उन्होंने अपने त्यागमयी व्यक्तित्व के आधार पर अपने अंतरमन के आनंद को जगत में बाँटा है। यही ज्ञानमयी अवस्था है। जीवनमुक्त ज्ञानी जो अपने आत्म तत्व की अनुभूति करता है, उसकी साधना व्यर्थ नहीं जाती। उसका हर कार्य मानवीय कल्याण की भावना से होता है।
इसलिए दत्त जयंती महोत्सव पर हम परम योगेश्वर सद्गुरु दत्तात्रेय का स्मरण करें, उनकी वंदना करें, जिससे हमारे अंदर के सद्गुणों को वे ऊर्जा प्रदान करें और हम स्वस्थ समाज का निर्माण करें, यही उनके चरणों में विनती है।
॥ जय हिंद, जय धर्म 

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Monday, 21 December 2015

गुरु दक्षिणा


एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा-‘गुरु जी,कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है,कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं | इनमें कौन सही है?’गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया-‘पुत्र,जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं,मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं |’यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था| गुरु जी को इसका आभास हो गया |वे कहने लगे-‘लो,तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ| ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे |’
उन्होंने जो कहानी सुनाई,वह इस प्रकार थी-एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए |गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे-‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए,ला सकोगे?’ वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे |सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं|वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले-‘जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा |’
अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहुँच चुके थे |लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं ,उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा | वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया |वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे |अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था | अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके |
वहाँ पहुँच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी|पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी |अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये |गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेहपूर्वक पूछा- ‘पुत्रो,ले आये गुरुदक्षिणा ?’
तीनों ने सर झुका लिया |गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव,हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये |हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं |’गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले-‘निराश क्यों होते हो ?प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो |’तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये |
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था,अचानक बड़े उत्साह से बोला-‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं |आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं?चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है |’गुरु जी भी तुरंत ही बोले-‘हाँ, पुत्र,मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना,सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके | दूसरे,यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप,स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें |’अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था |
अंततः,मैं यही कहना चाहती हूँ कि यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी |सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है |वस्तुतः,हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’ पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है |

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Monday, 14 December 2015

जीवन की दौड़

कुछ वर्ष पूर्व सीटल के विशेष ओलम्पिक खेलों की एक घटना है। मानसिक एवं शारीरिक रूप से असक्षम युवाओं की 100 मीटर की दौड़ के आयोजन का समय आ गया था। मानसिक एवं शारीरिक रूप से असक्षम प्रतिभागी बन्दूक की गोली चलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही गोली चली, सभी प्रतिद्वन्दी प्रारंभिक रेखा से भागे और जीतने की प्रबल इच्छा को लेकर आगे बढ़ने लगे। लेकिन एक छोटा लड़का लड़खड़ा कर शुरू में ही गिर गया और रोने लगा। बाकी आठ प्रतिभागियों ने उसके रोने की आवाज़ सुनी और उन आठों ने पीछे मुड़कर देखा।और फिर वह आठों के आठों वापस लौटे और उस बालक के पास पहुंचे। एक बालिका जो "डाउन्स सिन्ड्रोम" नामक बीमारी से ग्रसित होने के कारण मानसिक एवं शारीरिक रूप से असामान्य थी, झुकी और उसने उस छोटे से बालक को प्यार से चूमा और बोली, " अरे कोई बात नहीं , अब तुम बिल्कुल ठीक से दौड़ोगे ।"
और इसके बाद जो भी हुआ उसे देखकर स्टेडियम में बैठे सभी दर्शकों ने दांतों तले उंगली दबा ली। इसके बाद नौ के नौ प्रतिभागियों ने एक दूसरे के हाथ पकड़ कर एक साथ भागना शुरू किया और सबने एक साथ 100 मीटर की अन्तिम रेखा पार की।
इस दौड़ के समाप्त होने के पश्चात स्टेडियम में उपस्थित अपार जनसमूह खड़ा हो गया और सबने मिलकर काफ़ी देर तक तालियाँ बजा कर इन शारीरिक एवं मानसिक रूप से असामान्य प्रतिभागियों का मनोबल बढाया। जो लोग उस समय वहां उपस्थित थे वे आज तक अन्य लोगों को यह कहानी बड़े गर्व से सुनते हैं। क्यों ? क्योंकि मन ही मन वह जानते हैं की हमारे जीवन में स्वयं जीतने से अधिक महत्वपूर्ण है जीतने में अन्य लोगों की मदद करना, चाहे ऐसा करने में उन्हें अपनी गति कुछ कम ही करनी पड़े। चाहे ऐसा करने में उन्हें अपना मार्ग ही कुछ क्यों न बदलना पड़े।

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Saturday, 12 December 2015

भावनाओं का सम्मान करें; मुफ्त की दी हुई वस्तुओं को मूल्यों से मत आंकें



एक समय की बात है। एक शहर में एक धनी आदमी रहता था। उसकी लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी थी और वह कई तरह के व्यापार करता था। 
बड़े विशाल क्षेत्र में उसके बगीचे फैले हुए थे, जहां पर भांति-भांति के फल लगते थे। उसके कई बगीचों में अनार के पेड़ बहुतायत में थे, जो दक्ष मालियों की देख-रेख में दिन दूनी और रात चौगुनी गति से फल-फूल रहे थे। उस व्यक्ति के पास अपार संपदा थी, किंतु उसका हृदय संकुचित न होकर अति विशाल था।
शिशिर ऋतु आते ही वह अनारों को चांदी के थालों में सजाकर अपने द्वार पर रख दिया करता था।
उन थालों पर लिखा होता था ‘आप कम से कम एक तो ले ही लें। मैं आपका स्वागत करता हूं।’
लोग इधर-उधर से देखते हुए निकलते, किंतु कोई भी व्यक्ति फल को हाथ तक नहीं लगाता था।
तब उस आदमी ने गंभीरतापूर्वक इस पर विचार किया और किसी निष्कर्ष पर पहुंचा। अगली शिशिर ऋतु में उसने अपने घर के द्वार पर उन चांदी के थालों में एक भी अनार नहीं रखा, बल्कि उन थालों पर उसने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा ‘हमारे पास अन्य सभी स्थानों से कहीं अच्छे अनार मिलेंगे, किंतु उनका मूल्य भी दूसरे के अनारों की अपेक्षा अधिक लगेगा।’और तब उसने पाया कि न केवल पास-पड़ोस के, बल्कि दूरस्थ स्थानों के नागरिक भी उन्हें खरीदने के लिए टूट पड़े।
इस कथा का सार यह है कि अच्छी भावनाएँ अमूल्य होती हैं। भावना से दी जाने वाली अच्छी वस्तुओं को हेय दृष्टि से देखने की मानसिकता गलत है। सभी सस्ती या नि:शुल्क वस्तुएं या सेवाएं निकृष्ट नहीं होतीं। वस्तुत: आवश्यकता वह दृष्टि विकसित करने की है, जो भावना और व्यापार में फर्क कर सके और वस्तुओं की गुणवत्ता का ठीक-ठाक निर्धारण कर सके।

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Monday, 7 December 2015

सत्य पराजित नहीं हो सकता

सत्य के प्रति गांधीजी का आग्रह सबसे ऊपर रहता था। वह स्वयं तो इसका पालन करते ही थे, यह भी चाहते थे कि उनके करीबी लोग भी सदैव सत्य का पालन करते रहें। यह उन दिनों की बात है जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे और फिनिक्स आश्रम में रहते थे।
एक बार कुछ युवक उस आश्रम में रहने के लिए आए। उन युवकों ने एक विचित्र व्रत लिया। उन्होंने मिलकर निश्चय किया कि एक महीने तक वे बिना नमक वाला भोजन करेंगे। इसके लिए उन्होंने की प्रतिज्ञा भी कर ली। कुछ दिन तक तो वे अपनी प्रतिज्ञा पर बाकायदा अमल करते रहे, लेकिन शीघ्र ही वे सादे भोजन से उकताने लगे। जब इस तरह और चलाना मुश्किल हो गया तो एक दिन उन युवकों ने डरबन से मंगवाकर मसालेदार और स्वादिष्ट चीजें खा लीं।
लेकिन उन्हीं में से एक युवक ने बापू को यह सब बता भी दिया। बापू उस समय तो कुछ नहीं बोले, लेकिन प्रार्थना सभा में उन्होंने उन सब युवकों को बुलाकर खाने के बारे में पूछताछ की। लेकिन उन सबने मना कर दिया। उलटा उन लोगों ने भेद खोलने वाले साथी को ही झूठा ठहरा दिया।
बापू को युवकों की यह हरकत अच्छी नहीं लगी। 
वे जोरों से अपने गालों को पीटने लगे। फिर बोले- ‘मुझसे सचाई छिपाने में कसूर तुम्हारा नहीं, मेरा है। क्योंकि मैंने अभी तक सत्य का गुण प्राप्त नहीं किया है। इसलिए सत्य मुझसे दूर भागता है।’ बापू का यह बर्ताव देखकर युवकों पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे सब एक-एक करके बापू के चरणों में गिर पड़े और उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। इस कथा का सार यह कि सत्य को आप भले ही कुछ समय के लिए दबा दें, पर उसे  पराजित नहीं कर सकते। 

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Saturday, 28 November 2015

देना देवत्त है

एक बार एक शिक्षक संपन्न परिवार से सम्बन्ध रखने वाले एक युवा शिष्य के साथ कहीं टहलने निकले . उन्होंने देखा की रास्ते में पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं , जो संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे जो अब अपना काम ख़त्म कर घर वापस जाने की तयारी कर रहा था .शिष्य को मजाक सूझा उसने शिक्षक से कहा , “ गुरु जी क्यों न हम ये जूते कहीं छिपा कर झाड़ियों के पीछे छिप जाएं ; जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा !!”
शिक्षक गंभीरता से बोले , “ किसी गरीब के साथ इस तरह का भद्दा मजाक करना ठीक नहीं है . क्यों ना हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छिप कर देखें की इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है !!” शिष्य ने ऐसा ही किया और दोनों पास की झाड़ियों में छुप गए .
मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया . उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ , उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा की अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे , उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें पलट -पलट कर देखने लगा . फिर उसने इधर -उधर देखने लगा , दूर -दूर तक कोई नज़र नहीं आया तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए .
अब उसने दूसरा जूता उठाया , उसमे भी सिक्के पड़े थे …मजदूर भावविभोर हो गया , उसकी आँखों में आंसू आ गए , उसने हाथ जोड़ ऊपर देखते हुए कहा – “हे भगवान् , समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए उस अनजान सहायक का लाख -लाख धन्यवाद , उसकी सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दावा और भूखें बच्चों को रोटी मिल सकेगी .”
मजदूर की बातें सुन शिष्य की आँखें भर आयीं . शिक्षक ने शिष्य से कहा – “ क्या तुम्हारी मजाक वाली बात की अपेक्षा जूते में सिक्का डालने से तुम्हे कम ख़ुशी मिली ?” शिष्य बोला , “ आपने आज मुझे जो पाठ पढाया है , उसे मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा . आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया हूँ जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था कि लेने की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है . देने का आनंद असीम है . देना देवत्त है .”

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Wednesday, 25 November 2015

छोटा सा सम्मान

हमारे जीवन के छोटे से छोटे कार्य भी हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि आप जब भी किसी से मिलें, पूरी उत्साह एवं गर्मजोशी से मिलें, हमेशा दूसरों की मदद करें और जो काम करें पूरी  ईमानदारी के साथ,  फिर जीवन में  मुश्किल से मुश्किल घड़ियों में भी आपके लिए नए-नए रास्ते स्वतः खुलते चले  जाएंगे। आपका व्यव्य्हार आपके जीवन में किस तरह  सक्कारात्मक बदलाव ला सकती है  इसके  लिए में आपको एक कहानी सुनाता हूँ। यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जो एक फ्रीजर प्लांट में कार्य करता था। दिन का अंतिम समय था और सभी लोग घर जाने को तैयार थे। तभी प्लांट में एक तकनीकी समस्या उत्पन्न हो गयी।  प्लांट का वह कर्मचारी प्लांट में उत्पन्न तकनिकी समस्या को दूर करने में जुट गया। जब तक वह कार्य पूरा करता, तब तक अत्यधिक देर हो गयी। लाईटें बुझा दी गईं, दरवाजे सील हो गये और वह उसी प्लांट में बंद हो गया। बिना हवा व प्रकाश के पूरी रात आइस प्लांट में फंसे रहने के कारण उसकी कब्रगाह बनना तय था।
लगभग आधा घण्टे का समय बीत गया। तभी उसने किसी को दरवाजा खोलते पाया। क्या यह एक चमत्कार था? उसने देखा कि दरवाजे पर सुरक्षा टार्च लिए खड़ा है। उसने उसे बाहर निकलने में मदद की।बाहर निकल कर उस व्यक्ति ने सुरक्षा गार्ड से पूछा "आपको कैसे पता चला कि मै भीतर हूँ?" गार्ड ने उत्तर दिया- "सर, इस प्लांट में 50 लोग कार्य करते हैँ पर सिर्फ एक आप हैँ जो मुझे सुबह आने पर `हैलो' व शाम को जाते समय `बाय' कहते हैँ। आज सुबह आप ड्यूटी पर आये थे पर शाम को आप बाहर नहीं गए। इससे मुझे शंका हुई और मैं देखने चला आया।'' 
वह व्यक्ति नहीं जानता था कि उसका किसी को छोटा सा सम्मान देना कभी उसका जीवन बचाएगा।  इस कथा का सार यह है कि जब भी आप किसी से मिलें तो उसका गर्मजोशी और मुस्कुराहट के साथ सम्मान करें। हमें नहीं पता, पर हो सकता है कि ये आपके जीवन में भी चमत्कार दिखा दे।

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Thursday, 19 November 2015

विश्व शौचालय दिवस

देश को खुले में शौच से मुक्त रखने का संकल्प लें
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों के करीब 2.5 अरब (36%) लोग खुले में शौच के लिये मजबूर हैं जबकि विश्व की जनसंख्या करीब 7 अरब है। खेद की बात यह है कि ऐसे खुले में शौच के लिये मजबूर लोगों में से 63.80 करोड़ (देश की कुल जनसंख्या के 53%) लोग भारतीय हैं। स्वाधीनता के 68 वर्ष बाद भी भारत की यह स्थिति सोचनीय है क्योंकि हमारा देश इस मामले में पडोसी देशों पाकिस्तान नेपाल से भी पिछड़ा हुआ है। चीन में तो शौचालय सुविधा रहित लोगों की जनसंख्या केवल 4% ही है।
खुले में शौच निवृति की मजबूरी असुविधाजनक तो होती ही है, किसी नागरिक, विशेषकर महिलाओं की निजता (privacy) का गंभीर उल्लंघन भी करती है। ऐसे मल त्याग से भू जल के प्रदूषित होने का भी ख़तरा बना ही रहता है जो वर्षा ऋतु में और भी गंभीर हो जाता है क्योंकि मल धूप से सूखने के पहले ही पानी के साथ बह निकलता है और रोगकारक कीटाणु फैलाता है। प्रदूषित पानी के कारण उल्टी-दस्त, हैजे जैसे संक्रामक रोग फैलते हैं।
इस गंभीर समस्या निजात पाने के लिए देश में खुले में शौच को रोकना परम आवश्यक है। यद्यपि वर्तमान में भारत सरकार प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी की अगुवाई में स्वछता एवं शौचालय को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर कार्य कर रही है, आवश्यकता है इस कार्य को और गति देने कि यदि हम वास्तव में देशवासियों को सन 2019 तक खुले में शौच से मुक्त करना चाहते हैं। इसके लिए सरकार साथ देश की निजी क्षेत्र की औद्योगिक, कॉर्पोरेट घरानों एवं अन्य सामर्थ्यवान व्यक्तियों को आगे आना होगा। आज विश्व शौचालय दिवस पर हम सब अपने अपने स्तर घर, समाज, शहर देश को गंदगीमुक्त एवं खुले में शौच से मुक्त रखने का संकल्प लें।

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Monday, 16 November 2015

काँच की बरनी और दो कप चाय

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी – जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , ” काँच की बरनी और दो कप चाय ” हमें याद आती है । दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं …

उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची … उन्होंने छात्रों से पूछा – क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ … आवाज आई … फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे – छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे – धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ … कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले – हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे … फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई …

प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया – इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ….
टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं ,
छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और
रेत का मतलब और भी छोटी – छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..
अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी …
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है … यदि तुम छोटी – छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा … मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक – अप करवाओ … टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ….. पहले तय करो कि क्या जरूरी है … बाकी सब तो रेत है ..
छात्र  बडे़  ध्यान  से  सुन  रहे  थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि ” चाय के दो कप ” क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया …इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।

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Saturday, 14 November 2015

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

कैंसर को विश्व की सबसे भयानक बीमारी कहा जाता है, लेकिन विश्व की सबसे खतरनाक बीमारी कैंसर नहीं बल्कि तनाव या चिंता है| कैंसर के कारण हर वर्ष लाखों लोगों की मृत्यु हो जाती है लेकिन तनाव एक ऐसी बीमारी है, जो जीवित व्यक्ति को जिन्दा लाश बना देती है| ऐसा कहा जाता है कि 80% से ज्यादा बिमारियों का कारण तनाव है  व्यक्ति भले ही शारीरिक रूप से असक्षम या बीमार हो लेकिन मानसिक रूप से स्वस्थ है तो उसे कोई नहीं हरा सकता| ऐसे कई प्रेरक व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपने सकारात्मक मानसिक स्वास्थ्य एंव आत्मविश्वास की बदौलत जिंदगी को जीत लिया|विल्मा रूडोल्फ जिन्हें चार वर्ष की उम्र में पोलियो हो गया था और डॉक्टरों ने कह दिया था कि वह कभी भी चल नहीं पायेगी लेकिन वह विश्व की सबसे तेज धावक बनी| स्टीफन हाकिंग जिन्हें 21 वर्ष की उम्र में  एमीयोट्रोफिक लेटरल क्लोरोसिस रोग हो गया था और डॉक्टर ने यह कह दिया था कि हाकिंग दो वर्ष से ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह पाएंगे लेकिन हाकिंग ने मौत को मात दे दी | दिमाग को छोड़ कर शेष सारे शरीर के निष्क्रिय हो जाने के बावजूद उन्होंने अपना शोध जारी रखा और आज वे विश्व के महान वैज्ञानिकों में से एक है। हरफनमौला क्रिकेटर युवराज सिंह जिन्हें कैंसर हो गया था लेकिन उन्होंने जल्द ही कैंसर को मात दे दी और क्रिकेट में वापसी कर ली|
अगर स्टीफन हाकिंग, विल्मा रूडोल्फ एंव युवराज सिंह जैसे लोग इस बात के गवाह हैं कि अगर आप सकारात्मक सोचते है और स्वंय पर विश्वास रखते है तो आपके लिए “असंभव कुछ भी नहीं” 

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Monday, 9 November 2015

`समय और धैर्य' जीवन के लक्ष्यों को पाने के लिए आवश्यक


एक साधु था , वह रोज घाट के किनारे बैठ कर चिल्लाया करता था ,”जो चाहोगे सो पाओगे”, जो चाहोगे सो पाओगे।”
बहुत से लोग वहाँ से गुजरते थे पर कोई भी उसकी बात पर ध्यान नहीँ देता था और सब उसे एक पागल आदमी समझते थे।
एक दिन एक युवक वहाँ से गुजरा और उसनेँ उस साधु की आवाज सुनी , “जो चाहोगे सो पाओगे”, जो चाहोगे सो पाओगे।” ,और आवाज सुनते ही उसके पास चला गया।
उसने साधु से पूछा -“महाराज आप बोल रहे थे कि ‘जो चाहोगे सो पाओगे’ तो क्या आप मुझको वो दे सकते हो जो मैँ जो चाहता हूँ?”
साधु उसकी बात को सुनकर बोला – “हाँ बेटा तुम जो कुछ भी चाहता है मैँ उसे जरुर दुँगा, बस तुम्हें मेरी बात माननी होगी। लेकिन पहले ये तो बताओ कि तुम्हें आखिर चाहिये क्या?”
युवक बोला-” मेरी एक ही ख्वाहिश है मैँ हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनना चाहता हूँ। “ साधू बोला ,” कोई बात नहीँ मैँ तुम्हे एक हीरा और एक मोती देता हूँ, उससे तुम जितने भी हीरे मोती बनाना चाहोगे बना पाओगे !” और ऐसा कहते हुए साधु ने अपना हाथ आदमी की हथेली पर रखते हुए कहा , ” पुत्र , मैं तुम्हे दुनिया का सबसे अनमोल हीरा दे रहा हूं, लोग इसे ‘समय’ कहते हैं, इसे तेजी से अपनी मुट्ठी में पकड़ लो और इसे कभी मत गँवाना, तुम इससे जितने चाहो उतने हीरे बना सकते हो “
युवक अभी कुछ सोच ही रहा था कि साधु  उसका दूसरी हथेली , पकड़ते हुए बोला , ” पुत्र , इसे पकड़ो , यह दुनिया का सबसे कीमती मोती है , लोग इसे “धैर्य ” कहते हैं , जब कभी समय देने के बावजूद परिणाम ना मिले तो इस कीमती मोती को धारण कर लेना , याद रखना जिसके पास यह मोती है, वह दुनिया में कुछ भी प्राप्त कर सकता है। “
युवक ने गम्भीरता से साधु की बातों पर विचार करते हुए निश्चय किया कि आज से वह कभी अपना समय बर्वाद नहीं करेगा और हमेशा धैर्य से काम लेगा। इस विचार को अपने अंदर आत्मसात करते हुए उसने हीरों के एक बहुत बड़े व्यापारी के यहाँ काम शुरू  किया और फिर अपनी मेहनत  एवं  ईमानदारी के बल पर एक दिन खुद भी हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बन गया ।
मित्रों, इस कथा का सार यह है कि ‘समय’ और ‘धैर्य’ वह दो हीरे-मोती हैं जिनके बल पर हम बड़े से बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। अतः ज़रूरी है कि हम अपने कीमती समय को बर्वाद ना करें और अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए धैर्य से काम लें।

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Saturday, 7 November 2015

Struggles of life

Once upon a time a daughter complained to her father that her life was miserable and that she didn’t know how she was going to make it. She was tired of fighting and struggling all the time. It seemed just as one problem was solved, another one soon followed. Her father, a chef, took her to the kitchen. He filled three pots with water and placed each on a high fire.
Once the three pots began to boil, he placed potatoes in one pot, eggs in the second pot and ground coffee beans in the third pot. He then let them sit and boil, without saying a word to his daughter. The daughter, moaned and impatiently waited, wondering what he was doing. After twenty minutes he turned off the burners. He took the potatoes out of the pot and placed them in a bowl. He pulled the eggs out and placed them in a bowl. He then ladled the coffee out and placed it in a cup.
Turning to her, he asked. “Daughter, what do you see?” “Potatoes, eggs and coffee,” she hastily replied. “Look closer”, he said, “and touch the potatoes.” She did and noted that they were soft. He then asked her to take an egg and break it. After pulling off the shell, she observed the hard-boiled egg.
Finally, he asked her to sip the coffee. Its rich aroma brought a smile to her face. “Father, what does this mean?” she asked.
He then explained that the potatoes, the eggs and coffee beans had each faced the same adversity-the boiling water. However, each one reacted differently. The potato went in strong, hard and unrelenting, but in boiling water, it became soft and weak. The egg was fragile, with the thin outer shell protecting its liquid interior until it was put in the boiling water. Then the inside of the egg became hard. However, the ground coffee beans were unique. After they were exposed to the boiling water, they changed the water and created something new. “Which one are you?” he asked his daughter. “When adversity knocks on your door, how do you respond? Are you a potato, an egg, or a coffee bean?”
Moral of the story:  In life, things happen around us, things happen to us. but the only thing that truly matter is how you choose to react to it and when you make out of it. Life is all about learning, adopting and converting all the struggle that we experience into something positive.

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Monday, 26 October 2015

एक गिलास दूध की कीमत

एक बार एक लड़का अपने स्कूल की फीस भरने के लिए एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक कुछ सामान बेचा करता था, एक दिन उसका कोई सामान नहीं बिका और उसे बड़े जोर से भूख भी लग रही थी. उसने तय किया कि अब वह जिस भी दरवाजे पर जायेगा, उससे खाना मांग लेगा. दरवाजा खटखटाते ही एक लड़की ने दरवाजाखोला, जिसे देखकर वह घबरा गया और बजाय खाने के उस…ने पानी का एक गिलास पानी माँगा। 

लड़की ने भांप लिया था कि वह भूखा है,  इसलिए वह एक बड़ा गिलास दूध का ले आई.  लड़के  ने  धीरे-धीरे दूध पी लिया.” .  कितने पैसे दूं?”  लड़के ने पूछा। ” पैसे किस बात के?”  लड़की ने जवाव में कहा.”  माँ ने मुझे सिखाया है कि जब भी किसी पर दया करो तो उसके पैसे नहीं लेने चाहिए। ”” 
तो फिर मैं आपको दिल से धन्यबाद देताहूँ.”जैसे ही उस लड़के ने वह घर छोड़ा, उसे न केवल शारीरिक तौर पर शक्ति मिल चुकीथी , बल्कि उसका भगवान् और आदमी पर भरोसा और भी बढ़ गया था। 
सालों बाद वह लड़की गंभीर रूप से बीमार पड़ गयी।  लोकल डॉक्टर ने उसे शहरके बड़े अस्पताल में इलाज के लिए भेज दिया।  विशेषज्ञ डॉक्टर होवार्ड केल्ली को मरीज  देखने  के  लिए बुलाया  गया. जैसे  ही  उसने  लड़की  के  कस्वे  का  नाम  सुना,  उसकी आँखों  में चमक आ गयी. वह एकदम सीट से उठा और उस लड़की के कमरे में गया।  उसने उस लड़की को देखा,  एकदम पहचान लिया और तय कर लिया कि वह उसकी जान बचाने के लिए जमीन-आसमान एक कर देगा। 
उसकी मेहनत और लग्न रंग लायी और उस लड़की कि जान बच गयी।  डॉक्टर ने अस्पताल के ऑफिस में जा कर उस लड़की के इलाज का बिल लिया. उस बिल के कौने में एक नोट लिखा और उसे उस लड़की के पास भिजवा दिया। लड़की बिल का लिफाफा देखकर घबरा गयी,   उसे मालूम था कि वह बीमारी से तो वह बच गयी है लेकिन बिल   की रकम जरूर उसकी जान ले लेगी। फिर भी उसने धीरे से बिल खोला, रकम  को  देखा  और  फिर  अचानक उसकी नज़र बिल के  कोने  में पेन से लिखे नोट पर गयी,  जहाँ लिखा था,”  एक  गिलास  दूध  द्वारा  इस  बिल  का  भुगतान  किया  जा  चुका है.” नीचे डॉक्टर होवार्ड केल्ली के हस्ताक्षर थे। ख़ुशी और अचम्भे  से उस लड़की के गालों पर आंसू टपक  पड़े  उसने  ऊपर  कि  ओर  दोनों  हाथ उठा कर कहा,” हे भगवान! आपका  बहुत-बहुत  धन्यवाद।   आपका प्यार इंसानों के दिलों और हाथों द्वारा न जाने कहाँ- कहाँ फैल चुका है।

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Saturday, 24 October 2015

आपका जीवन सबसे कीमती है

एक जाने-माने वक्ता  ने हाथ में पांच सौ का नोट लहराते हुए अपनी सेमीनार शुरू की. हाल में बैठे सैकड़ों लोगों से उसने पूछा ,” ये पांच सौ का नोट कौन लेना चाहता है ?” हाथ उठना शुरू हो गए।  फिर उसने कहा ,” मैं इस नोट को आपमें से किसी एक को दूंगा पर  उससे पहले मुझे ये कर लेने दीजिये .” और उसने नोट को अपनी मुट्ठी में चिमोड़ना शुरू कर दिया. और  फिर उसने पूछा,” कौन है जो अब भी यह नोट लेना चाहता है?” अभी भी लोगों के हाथ उठने शुरू हो गए।  “अच्छा” उसने कहा,” अगर मैं  ये  कर  दूं ? ” और उसने नोट को नीचे गिराकर पैरों से कुचलना शुरू कर दिया. उसने नोट उठाई , वह बिल्कुल चिमुड़ी और गन्दी हो गयी थी।
” क्या अभी भी कोई है जो इसे लेना चाहता है?”. और एक  बार  फिर हाथ उठने शुरू हो गए।  ” मित्रों,  आप  लोगों ने आज एक बहुत महत्त्वपूर्ण पाठ सीखा है।  मैंने इस नोट के साथ इतना कुछ किया पर फिर भी आप इसे लेना चाहते थे क्योंकि ये सब होने के बावजूद  नोट  की  कीमत  घटी  नहीं, उसका मूल्य अभी  भी  500 था।  जीवन में कई बार हम गिरते हैं, हारते हैं, हमारे लिए हुए निर्णय हमें मिटटी में मिला देते हैं।   हमें ऐसा लगने लगता है कि हमारी कोई कीमत नहीं है.  लेकिन आपके साथ चाहे जो हुआ हो या भविष्य में जो हो जाए,  आपका मूल्य कम नहीं होता।  आप  विशिष्ट हैं, इस बात को कभी मत भूलिए।  कभी भी बीते हुए कल की निराशा को आने वाले कल के सपनो को बर्बाद मत करने दीजिये।  याद  रखें आपके पास जो सबसे कीमती चीज है, वो है आपका जीवन.”

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Monday, 5 October 2015

Keep Believing in Yourself!


There may be days when you get up in the morning and things aren’t the way you had hoped they would be.
That’s when you have to tell yourself that things will get better. There are times when people disappoint you and let you down. But those are the times when you must remind yourself to trust your own judgments and opinions, to keep your life focused on believing in yourself.
There will be challenges to face and changes to make in your life, and it is up to you to accept them.

Constantly keep yourself headed in the right direction for you. It may not be easy at times, but in those times of struggle you will find a stronger sense of who you are.So when the days come that are filled with frustration and unexpected responsibilities, remember to believe in yourself and all you want your life to be. Because the challenges and changes will only help you to find the goals that you know are meant to come true for you. Keep Believing in Yourself!

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Saturday, 3 October 2015

ऐसे कार्य करें जिससे देश के स्वाभिमान की रक्षा हो

एक बार की बात है , मगध साम्राज्य के सेनापति किसी व्यक्तिगत काम से चाणक्य से मिलने पाटलिपुत्र पहुंचे । शाम ढल चुकी थी , चाणक्य गंगा तट पर अपनी कुटिया में, दीपक के प्रकाश में कुछ लिख रहे थे। कुछ देर बाद जब सेनापति भीतर दाखिल हुए, उनके प्रवेश करते ही चाणक्य ने सेवक को आवाज़ लगायी और कहा , ” आप कृपया इस दीपक को ले जाइए और दूसरा दीपक जला कर रख दीजिये।”

सेवक ने आज्ञा का पालन करते हुए ठीक वैसा ही किया।

जब चर्चा समाप्त हो गयी तब सेनापति ने उत्सुकतावश प्रश्न किया-“ हे महाराज मेरी एक बात समझ नही आई ! मेरे आगमन पर आपने एक दीपक बुझवाकर रखवा दिया और ठीक वैसा ही दूसरा दीपक जला कर रखने को कह दिया .. जब दोनों में कोई अंतर न था तो ऐसा करने का क्या औचित्य है ?”

इस पर चाणक्य ने मुस्कुराते हुए सेनापति से कहा- “भाई पहले जब आप आये तब मैं राज्य का काम कर रहा था, उसमे राजकोष का ख़रीदा गया तेल था , पर जब मैंने आपसे बात की तो अपना दीपक जलाया क्योंकि आपके साथ हुई बातचीत व्यक्तिगत थी मुझे राज्य के धन को व्यक्तिगत कार्य में खर्च करने का कोई अधिकार नही, इसीलिए मैंने ऐसा किया। ”

उन्होंने कहना जारी रखा-“ स्वदेश से प्रेम का अर्थ है अपने देश की वस्तु को अपनी वस्तु समझकर उसकी रक्षा करना..ऐसा कोई काम मत करो जिससे देश की महानता को आघात पहुचे, प्रत्येक देश की अपनी संस्कृति और आदर्श होते हैं.. उन आदर्शों के अनुरूप काम करने से ही देश के स्वाभिमान की रक्षा होती है। ”

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Thursday, 1 October 2015

बुजुर्गों को निष्प्रयोज्य ना समझें, उन्हें उचित सम्मान दें


एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है; यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है| यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है। वह लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में नहीं है। यह दुर्भाग्य है कि  जिस घर को बनाने में एक व्यक्ति अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझ लिया जाता है। 

आज का वृद्ध समाज अत्यधिक कुंठा ग्रस्त है और सामान्यत: इस बात से सर्बाधिक  दु:खी  है  कि  जीवन  का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व ही देता है। इस प्रकार अपने को समाज में एक तरह से  निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण  हमारे वृद्धजन सर्वाधिक दुखी रहते हैं । हमारे वृद्धों, बुजुर्गों को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है ।

वृद्धों के कल्याण के लिए इस प्रकार के कार्यक्रमों को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए, जो उनमें जीवन के प्रति उत्साह उत्पन्न करें । इसके लिए उनकी रुचि के अनुसार विशेष प्रकार की योजनाएं भी लागू की जा सकती हैं। आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर हम अपने बड़ों, बुजुर्गों के प्रति आदर एवं सम्मान बनाए रखने का प्रण लेते हुए ना सिर्फ उन्हें  अपने परिवार में सर्वोच्च स्थान दें बल्कि उनके सुख दुःख का सतत  चिंतन करते हुए उनके   अधिकारों की  रक्षा करने का सामूहिक संकल्प लें। 

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Monday, 28 September 2015

How would you like to be remembered ?


About a hundred years ago, a man looked at the morning newspaper and to his surprise and horror, read his name in the obituary column. The news papers had reported the death of the wrong person by mistake. His first response was shock. Am I here or there? When he regained his composure, his second thought was to find out what people had said about him.

The obituary read, "Dynamite King Dies." And also "He was the merchant of death." This man was the inventor of dynamite and when he read the words "merchant of death," he asked himself a question, "Is this how I am going to be remembered?" He got in touch with his feelings and decided that this was not the way he wanted to be remembered. From that day on, he started working toward peace.

His name was Alfred Nobel and he is remembered today by the great Nobel Prize. Just as Alfred Nobel got in touch with his feelings and redefined his values, we should step back and do the same. 

What is your legacy?
How would you like to be remembered?
Will you be spoken well of?
Will you be remembered with love and respect?
Will you be missed?

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Sunday, 27 September 2015

भारतीय समाज का सत्य ?

हम अक्सर दोहरा जीवन जीते हैं- हमारे कथन और कर्म दोनों में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है, इसका कारण भी बहुत हद तक समझ में आता है और वो- पश्चिम की तथाकथित आधुनिकता पर किया गया हमारा अन्धविश्वास, या कहें इस मानसकिता के चलते जाने की वाली हमारी अपनी सभ्यता और संस्कृति की तर्कहीन उपेक्षा है
हमारी संस्कृति में धर्म का वास्तविक अर्थ हमारे आज की अलग-अलग सम्प्रदाय एवं जातिगत परिभाषाओं से बहुत अलग है, झूठे कर्मकाण्ड,आडम्बर,कुरीतियाँ,कुप्रथाएं हमारे धर्म का असल मर्म न होकर महज एक भ्रम हैं.
जिस प्रकार जर्मनी उनके अनुशासन के लिए जाना जाता है, जापान उनके अदद परिश्रम और लगन की प्रवृत्ति के चलते प्रसिद्द है, ठीक उसी तरह हमारे सम्पदा हमारा मनोविज्ञान,दर्शन,आध्यात्म और हमारी कृषि क्षमता है. लेकिन हम दिनोदिन इन्हीं से दूर होते जा रहे हैं.
हमारा धर्म कुछ सामाजिक कलंको के चलते यशहीन होता जा रहा है, हमारी कृषि रासायनिक कृषि के तथाकथित आधुनिक उपक्रमों के चलते विनाश की ओर जा रही है, हमारा आध्यात्म एक फैशन के अलावा कुछ रहा ही नहीं, कोई इसका मर्म समझना ही नहीं चाहता. हम पर व्यवहार से अधिक व्यापारिक मानसिकता हावी होती जा रही है- ऐसा नहीं है कि हम इसका नुकसान नहीं झेल रहे हैं बल्कि हम ऐसी हानि कि तरफ जा रहे हैं कि जहाँ प्रायश्चित के लिए भी कोई स्थान नहीं होगा.

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Saturday, 26 September 2015

कौन किसका मालिक



एक दिन एक सूफ़ी  संत 'शेख़ फरीद' अपने शिष्यों के साथ बैठे थे.तभी एक आदमी वहां से एक गाय को ज़बरदस्ती खींचता हुआ निकला .यह देखकर फरीद ने अपने शिष्यों से पूछा ," तुम्हारे विचार में कौन किससे बंधा है ?" उसके शिष्यों ने जवाब दिया कि स्पष्टतया गाय ही उस आदमी से बंधी है . फरीद ने फिर पूछा ,"अच्छा यह बताओ ,कौन किसका मालिक है ?" सब शिष्य इस अजीब से प्रश्न पर हंसने लगे और बोले कि वेह आदमी ही मालिक था और कौन ? गाय तो पशु है ,वह मनुष्य कि स्वामिनी कैसे हो सकती है ?"

" अच्छा , यह बताओ कि अग़र रस्सी को तोड़ दिया जाय तो क्या होगा " फरीद ने पूछा .
शिष्यों ने उत्तर दिया ," तब तो गाय भागने की कोशिश करेगी ."  ............... "और फिर उस आदमी का क्या होगा ?" फरीद ने पूछा 

"स्पष्ट रूप से तब तो यह आदमी गाय का पीछा करेगा , गाय के पीछे -पीछे भागेगा ." तुरंत जवाब आया .
जैसे ही शिष्यों ने यह जवाब दिया , वे समझ गए कि कौन किससे बंधा है ?

आज यदि हम सोचें कि आज के परपेक्ष्य में हम लोग कार ,स्कूटर,बाइक,लैपटॉप ,कम्पूटर ,डीवीडी ,मोबाईल ,एक्स्बौक्स ,पीएस३,टीवी इत्यादि भोग विलास की वस्तुओं के मालिक हैं या यह भोग विलास की वस्तुएं हमारी मालिक हैं ? हम इन वस्तुओं का उपयोग अपने लाभ के लिए ही कर रहे हैं या इन वस्तुओं के कारण हमारा नुकसान हो रहा है ?कहीं ऐसा तो नहीं कि हम इन वस्तुओं के इतने अधिक आदी हो चुके हैं कि हम अपने कर्तव्यों का निर्वाह ठीक से नहीं कर पा रहे ? 
हमें यह समझना होगा कि हमें इन भोग विलास के साधनों का उपयोग अपने गुलाम के रूप में करना है , और किसी भी कीमत पर इनका गुलाम नहीं बनना.

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Monday, 21 September 2015

About Hope and Strength


The war was going. Men were fighting. Women were carrying food to soldiers day and night, nursing the injured. In the village only old people and children remained.
One old man took an old plough and started sharpening it, mending it while singing something. His wife said to him with annoyance:
– You have a stone heart! Your sons joined a deadly battle, the village is in mourning. Your comrades are thinking about the fate of the village, and you, knowing this, are mending the plough and singing a song! If someone would ask, whom are you trying for, what would you say? Tomorrow the enemy will come here, they will kill you and us too, and they will take your plough.
– Woman, what are you talking? They will kill us, but not the plough. I’m building – not destroying. The world is resting on this plough: if we survive, we will need the plough, and if we die, maybe the love for labour will awaken in those who will take it. Maybe even I will be blessed. We don’t know, what is what in this world.

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Monday, 14 September 2015

हम समय समय पर अपना आत्म निरिक्षण करें 

एक छोटा सा लड़का जो कि लगभग ११-१२ वर्ष का रहा होगा ,एक दवाई कि दुकान में गया और उसके मालिक से एक फ़ोन मिलाने कि आज्ञा ली.फिर उसने एक बड़ा सा बक्सा खिसकाया और उस पर चढ़ गया जिससे कि वह ऊपर रखे हुए फ़ोन तक पहुँच सके।  दुकान का मालिक चुपचाप उस लड़के कि बातचीत सुनने लगा। .बालक ने एक महिला को फ़ोन मिलाया और बोला -  " क्या आप मुझे अपना बगीचा और लॉन काटने का काम दे सकती हैं ?"
इस पर वह महिला फ़ोन के दूसरी ओर से बोली ," मेरे लॉन कि  कटाई का काम पहले से कोई कर रहा है . बालक , " किन्तु ,मैं आपके लॉन कि कटाई का काम उससे आधे दाम पर करने के लिए तैयार हूँ ."
महिला , " जो लड़का मेरे लॉन की कटाई का काम कर रहा है , मैं उसके काम से पूरी तरह संतुष्ट हूँ . "
 इस पर वह  बालक ओर अधिक निश्चय पूर्वक बोला , " मैं आप के लॉन के  चारों  ओर का रास्ता भी साफ़ कर दिया करूँगा  और और आपके  घर के बाहर    के शीशे  भी साफ़ कर दिया करूंगा ." महिला बोली ," नहीं , मुझे किसी की  आवश्यकता नहीं है ,धन्यवाद ," यह सुन कर वह  बालक मुस्कुराया,  उसने फोन रख दिया ."
दुकान का मालिक जो कि उस लड़के कि बातचीत  सुन रहा था , उसकी ओर आया ओर बोला ,"बेटा ,मुझे तुम्हारा आत्मविश्वास और सकारात्मक दृष्टिकोण देख कर बहुत  अच्चा लगा।  मुझे तुम्हें नौकरी पर रख कर वास्तव में ख़ुशी होगी। क्या तुम मेरे लिए काम करना पसंद करोगे ? इस पर वह  बालक बोला, "धन्यवाद, पर मैं कोई नौकरी नहीं करना चाहता ." 
दुकान का मालिक बोला," लेकिन , बेटा तुम तो अभी-अभी फोन पर नौकरी के लिए गिडगिडा रहे थे ." इस पर बालक बोला," नहीं महोदय , मैं तो केवल  अपनी कार्यकुशलता का परीक्षण  कर रहा था,. दरअसल , जिस महिला को मैंने फोन किया था मैं उसी के लिए कार्य करता हूँ  ."
वह आगे बोला," और उससे बात करने के पश्चात  यह जान कर मुझे बहुत अधिक आत्मसंतोष मिल रहा है कि वह महिला मेरे कार्य से पूर्ण रूप से संतुष्ट है  ."
उस  छोटे से बालक की कहानी से हम सभी को समय समय पर अपना आत्म निरीक्षण करने की प्रेरणा लेनी चाहिए।

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Saturday, 12 September 2015

Face Difficulties Positively


This parable is told of a farmer who owned an old mule. The mule fell into the farmer’s well. The farmer heard the mule praying or whatever mules do when they fall into wells.
 After carefully assessing the situation, the farmer sympathized with the mule, but decided that neither the mule nor the well was worth the trouble of saving. Instead, he called his neighbors together, told them what had happened, and enlisted them to help haul dirt to bury the old mule in the well and put him out of his misery.
Initially the old mule was hysterical! But as the farmer and his neighbors continued shoveling and the dirt hit his back, a thought struck him. It suddenly dawned on him that every time a shovel load of dirt landed on his back, HE WOULD SHAKE IT OFF AND STEP UP!
This he did, blow after blow. “Shake it off and step up… shake it off and step up… shake it off and step up!” He repeated to encourage himself. No matter how painful the blows, or how distressing the situation seemed, the old mule fought panic and just kept right on SHAKING IT OFF AND STEPPING UP!
It wasn’t long before the old mule, battered and exhausted, stepped triumphantly over the wall of that well! What seemed like it would bury him actually helped him … all because of the manner in which he handled his adversity.
THAT’S LIFE! If we face our problems and respond to them positively, and refuse to give in to panic, bitterness, or self-pity.

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Monday, 7 September 2015

सफलता प्राप्त करने के लिए दृढ संकल्प, लगन, कड़ी मेहनत आवश्यक है

बहुत दिनों की बात है हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी गाँव में एक बूढा रहता था, जो महामूर्ख के नाम से चर्चित था। उसके घर के सामने दो बड़े पहाड़ थे, जिससे आने जाने में असुविधा होती थी। पहाड़ के दूसरी ओर पहुँचने में कई दिन लग जाते।

एक दिन उसने अपने दोनो बेटों को बुलाया और उनके हाथों में फावड़ा थमाकर दृढ़ता से दोनो पहाड़ों को काट कर उनके बीच रास्ता बनाना शुरू कर दिया। यह देखकर कसबे के लोगों नं मजाक उड़ाना शुरू कर दिया- तुम सचमुच महामूर्ख हो। इतने बड़े बड़े पहाड़ों को काटकर रास्ता बनाना तुम बाप बेटों के बस से बाहर है।

बूढ़े ने उत्तर दिया- मेरी मृत्यु के बाद मेरे बेटे यह कार्य जारी रखेंगे। बेटों के बाद पोते और पोतों के बाद परपोते। इस तरह पीढ़ी दर पीढी पहाड़ काटने का सिलसिला जारी रहेगा। हालाँकि पहाड़ बड़े हैं लेकिन हमारे हौसलों और मनोबल से अधिक बड़े तो नहीं हो सकते। हम निरन्तर खोदते हुए एक न एक दिन रास्ता बना ही लेंगे। आने वाली पीढ़ियाँ आराम से उस रास्ते से पहाड़ के उस पार जा सकेंगी।

उस बूढ़े की बात सुनकर लोग दंग रह गए कि जिसे वे महामूर्ख समझते थे उसने सफलता के मूलमन्त्र का रहस्य समझा दिया। गाँव वाले भी उत्साहित होकर पहाड़ काट कर रास्ता बनाने के उसके काम में जुट गए। कहना न होगा कि कुछ महीनों के परिश्रम के बाद वहाँ एक सुंदर सड़क बन गई और दूसरे शहर तक जाने का मार्ग सुगम हो गया। इसके लिये बूढ़े को भी दूसरी पीढ़ी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी।

 इस कथा का सार यह है कि दृढ़ संकल्प, लगन, और कड़ी मेहनत के साथ-साथ सकारात्मक सोच रहे तो सफलता जल्दी ही प्राप्त हो जाती है।

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Monday, 31 August 2015

जब गुस्सा आए तो विवेक से कार्य लें


जापान के किसी गांव में एक समुराई बूढ़ा योद्धा रहता था। उसके पास कई समुराई युद्धकला सीखने आते थे। एक बार एक विदेशी योद्धा उसे पराजित करने के लिए आया। वह साहसी था। उसके बारे में यहां तक कहा जाता था कि वह जहां भी जाता विजय होकर ही वापस अपने देश लौटता था।
जब विदेशी समुराई ने युद्ध करने की इच्छा जताई तो बूढ़े समुराई के शिष्यों ने मुकाबला न करने की प्रार्थना की। लेकिन बूढ़े समुराई ने उनकी नहीं मानीं और नियत समय पर युद्ध शुरू हुआ।
विदेशी समुराई, उस बूढ़े समुराई को अपमानित करने लगा। उसने, उन्हें गुस्सा दिलाने के सारे प्रयत्न किए लेकिन घंटों बाद भी उन्हें गुस्सा नहीं आया। यह देखकर विदेशी समुराई ने पैरों से धूल उड़ाकर जमीन पर थूक दिया। इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी बूढ़े समुराई ने कुछ न कहा। अब उस विदेशी योद्धा को अपनी पराजय का अहसास हुआ और वह अपनी हार मानते हुए चला गया।
यह देखकर बूढ़े समुराई के शिष्य हैरान थे उन्होंने पूछा, आपका इतना अपमान हुआ फिर भी आप चुप रहे। तब उनके गुरु ने कहा, यदि कोई तुम्हें तोहफा दे और तुम उसे स्वीकार न करो तो वह किसका होगा?
शिष्यों ने कहा, 'तोहफा देने वालों का ही होगा।' गुरु बोले, 'मैनें भी उसकी गालियों को स्वीकार नहीं किया। तो वह उसके पास ही गईं।'
इस कथा का सार यह है कि अमूमन हम व्यवहार में कुछ अप्रिय प्रसंगों का सामना करते हैं। ऐसे में अवाश्यक प्रतिक्रिया से बचकर हम अपनी ऊर्जा और समय को बचा सकते हैं। विवेक के प्रयोग से हम विरोधियों को भी सकारात्मक संदेश दे सकते हैं।

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Saturday, 29 August 2015

प्यारी बहन हेतु एक छोटी से भेंट

बात उन दिनों की है जब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे और फिरंगी उनके पीछे लगे थे। 
फिरंगियों से बचने के लिए शरण लेने हेतु आजाद एक तूफानी रात को एक घर में जा पहुंचे जहां एक विधवा अपनी बेटी के साथ रहती थी। हट्टे-कट्टे आजाद को डाकू समझ कर पहले तो वृद्धा ने शरण देने से इनकार कर दिया लेकिन जब आजाद ने अपना परिचय दिया तो उसने उन्हें ससम्मान अपने घर में शरण दे दी। बातचीत से आजाद को आभास हुआ कि गरीबी के कारण विधवा की बेटी की शादी में कठिनाई आ रही है। आजाद महिला को कहा, 'मेरे सिर पर पांच हजार रुपए का इनाम है, आप फिरंगियों को मेरी सूचना देकर मेरी गिरफ़्तारी पर पांच हजार रुपए का इनाम पा सकती हैं जिससे आप अपनी बेटी का विवाह सम्पन्न करवा सकती हैं।
यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- “भैया! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखे घूमते हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती।” यह कहते हुए उसने एक रक्षा-सूत्र आजाद के हाथों में बाँध कर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रूपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- “अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।”

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Monday, 24 August 2015

अमृतत्व की किरण


एक राजा था। वह एक दिन अपने वज़ीर से नाराज हो गया और उसे एक बहुत बड़ी मीनार के ऊपर कैद कर दिया। एक प्रकार से यह अत्यन्त कष्टप्रद मृत्युदण्ड ही था। न तो उसे कोई भोजन पहुंचा सकता था और न उस गगनचुम्बी मीनार से कूदकर उसके भागने की कोई संभावना थी।

जिस समय उसे पकड़कर मीनार पर ले जाया रहा था, लोगों ने देखा कि वह जरा भी चिंतित और दुखी नहीं है, उल्टे सदा की भांति आनंदित और प्रसन्न है। उसकी पत्नी ने रोते हुए उसे विदा दी और पूछा, "तुम इतने प्रसन्न क्यों हो?"

उसने कहा, "यदि रेशम का एक बहुत पतला सूत भी मेरे पास पहुंचाया जा सकता तो मैं स्वतंत्र हो जाऊंगा। क्या इतना-सा काम भी तुम नहीं कर सकोगी?"

उसकी पत्नी ने बहुत सोचा, लेकिन इतनी ऊंची मीनार पर रेशम कापतला धागा पहुंचाने का कोई उपाय उसकी समझ में न आया। तब उसने एक फकीर से पूछा। फकीर ने कहा, "भृंग नाम के कीड़े को पकड़ो। उसके पैर में रेशम के धागे को बांध दो और उसकी मूंछों के बालों पर शहद की एक बूंद रखकर उसका मुंह चोटी की ओर करके मीनार पर छोड़ दो।"

उसी रात को ऐसा किया गया। वह कीड़ा सामने मधु की गंध पाकर, उसे पाने के लोभ में, धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा और आखिर उसने अपनी यात्रा पूरी कर ली। रेशम के धागे का एक छोर कैदी के हाथ में पहुंच गया।

रेशम का यह पतला धागा उसकी मुक्ति और जीवन बन गया। उससे फिर सूत का धागा बांधकर ऊपर पहुंचाया गया, फिर सूत के धागे से डोरी और डोरी से मोटा रस्सा। उस रस्से के सहारे वह कैद से बाहर हो गया। सूर्य तक पहुंचने के लिए प्रकाश की एक किरण बहुत है। वह किरण किसी को पहुंचानी भी नहीं है। वह तो हर एक के पास मौजूद है।

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Monday, 17 August 2015

मुफ्त में मिले वस्तु को हेय दृष्टि से नहीं देखें

 एक समय की बात है। एक शहर में एक धनी आदमी रहता था। उसकी लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी थी और वह कई तरह के व्यापार करता था। 
बड़े विशाल क्षेत्र में उसके बगीचे फैले हुए थे, जहां पर भांति-भांति के फल लगते थे। उसके कई बगीचों में अनार के पेड़ बहुतायत में थे, जो दक्ष मालियों की देख-रेख में दिन दूनी और रात चौगुनी गति से फल-फूल रहे थे। उस व्यक्ति के पास अपार संपदा थी, किंतु उसका हृदय संकुचित न होकर अति विशाल था।
शिशिर ऋतु आते ही वह अनारों को चांदी के थालों में सजाकर अपने द्वार पर रख दिया करता था। उन थालों पर लिखा होता था ‘आप कम से कम एक तो ले ही लें। मैं आपका स्वागत करता हूं।’
लोग इधर-उधर से देखते हुए निकलते, किंतु कोई भी व्यक्ति फल को हाथ तक नहीं लगाता था। तब उस आदमी ने गंभीरतापूर्वक इस पर विचार किया और किसी निष्कर्ष पर पहुंचा। अगली शिशिर ऋतु में उसने अपने घर के द्वार पर उन चांदी के थालों में एक भी अनार नहीं रखा, बल्कि उन थालों पर उसने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा ‘हमारे पास अन्य सभी स्थानों से कहीं अच्छे अनार मिलेंगे, किंतु उनका मूल्य भी दूसरे के अनारों की अपेक्षा अधिक लगेगा।’और तब उसने पाया कि न केवल पास-पड़ोस के, बल्कि दूरस्थ स्थानों के नागरिक भी उन्हें खरीदने के लिए टूट पड़े।
कथा का संकेत यह है कि भावना से दी जाने वाली अच्छी वस्तुओं को हेय दृष्टि से देखने की मानसिकता गलत है। सभी सस्ती या नि:शुल्क वस्तुएं या सेवाएं निकृष्ट नहीं होतीं। वस्तुत: आवश्यकता वह दृष्टि विकसित करने की है, जो भावना और व्यापार में फर्क कर सके और वस्तुओं की गुणवत्ता का ठीक-ठाक निर्धारण कर सके।

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Thursday, 13 August 2015

Be an organ donor : Save precious lives


According to available statistic, more than 5 lakhs of the Indians are dying every year just because of the failure of their major functioning organs anytime. They still want to live their life  but just because of the natural calamities they are unable to do so. The organ transplantation cannot only save a life but  can also play a major role by increasing the period of living a life more than expectations.


 The donor of the organs plays a role of God in the life of organ transplanted person. One organ donor can save more than 8 lives in his life by donating his well function organs.  Unfortunately on account of lack of awareness and misplaced religious faiths have emerged a major irritants in organ transplantation in our country.

Organ Donation Day  which is being  celebrated in India today (13th of August) aims at motivating normal human beings to donate the organs as well as to understand the value of organ donation in the life of an individual. Let’s promote the importance of organ donation in the society and help save precious lives.

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Wednesday, 12 August 2015

युवा देश की उन्नति में भागीदार बनें

आज अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस पर देश एवं विश्व के सभी युवाओं को उनके उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएँ। किसी भी देश का भविष्य, उसका विकास, सांस्कृतिक एवं चारित्रिक उत्थान वहाँ के युवाओं पर निर्भर होता है। जहाँ तक हमारे देश का प्रश्न है पूरे विश्व में भारत को युवाओं का देश कहा जाता है, जहाँ 35 वर्ष की आयु तक के 65 करोड़ युवा हैं।अर्थात हमारे देश में अथाह श्रमशक्ति उपलब्ध है।आवश्यकता है आज हमारे देश की युवा शक्ति को उचित मार्ग दर्शन देकर उन्हें देश की उन्नति में भागीदार बनाने की, उनमे अच्छे संस्कार, उचित शिक्षा एवं प्रोद्यौगिक विशेषज्ञ बनाने की,  उन्हें बुरी आदतों जैसे  नशा, जुआ, हिंसा, इत्यादि दुर्गुणों से बचाने की।


क्योंकि चरित्र निर्माण ही देश की,समाज की, उन्नति के लिए परम आवश्यक है। दुश्चरित्र युवा न तो अपना भला कर सकता है, न समाज का और न ही अपने देश का। देश के निर्माण के लिए, देश की उन्नति के लिए, देश को विश्व के विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा करने के लिए युवा वर्ग को ही मेधावी,   श्रमशील, देश भक्त और समाज सेवा की भावना से ओत प्रोत होना होगा।

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Wednesday, 5 August 2015

माँ का दूध अमृत समान है

नवजात शिशुओं के लिए माँ का दूध अमृत के समान है। माँ का दूध शिशुओं को कुपोषण व अतिसार जैसी बीमारियों से बचाता है। रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति नए जन्मे हुए बच्चे में नहीं होती है। यह शक्ति माँ के दूध से शिशु को हासिल होती है क्योंकि माँ के दूध में `लेक्टोफोर्मिन' नामक तत्त्व होता है, जो बच्चे की आंत में लौह तत्त्व को बांध लेता है और लौह तत्त्व के अभाव में शिशु की आंत में रोगाणु पनप नहीं पाते। माँ का दूध जिन बच्चों को बचपन में पर्याप्त रूप से पीने को नहीं मिलता, उनमें बचपन में शुरू होने वाली मधुमेह की बीमारी अधिक होती है। बुद्धि का विकास उन बच्चों में दूध पीने वाले बच्चों की अपेक्षाकृत कम होता है।
माताओं में स्तनपान के प्रति चेतना जागृत करने,  उन्हें शिशुओं को जन्म से छ: माह तक  मात्र  अपना दूध पिलाने के लिए पुरे देश में अगस्त के प्रथम सप्ताह को स्तनपान सप्ताह के रूप में मनाया जा रहा है  क्योंकि स्तनपान को बढ़ावा देकर ना सिर्फ शिशु मृत्यु दर में कमी लाई जा सकती है बल्कि यह उनके संरक्षण और संवर्धन का भी कार्य करता है। आश्वस्त हूँ कि हमारी मातृशक्ति अपने शिष्यों के दीर्घ एवं स्वस्थ्य  जीवन के लिए स्तनपान को अधिक से अधिक संख्या  अपनाएंगी।

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Monday, 3 August 2015

दुखियों की सेवा ही गुरु की सच्ची सेवा है

एक बार एक अनुभवी हकीम गुरु गोविंद सिंह के दर्शन के लिए आनंदपुर आया। जब वह गुरु गोविंद से मिलकर वापस लौटने लगा तो उन्होंने उसे गुरु मंत्र देते हुए कहा, 'जाओ, तुम दीन-दुखियों की मन लगाकर सेवा करो।' हकीम अपने घर लौटकर समर्पण भाव से हकीमी करने लगा। जब भी कोई बीमार आदमी उसके पास आता, वह सेवा समझकर बड़े प्रेम से उसका उपचार करता। एक दिन सुबह के समय हकीम इबादत में लीन था, तभी गुरु गोविंद सिंह उसके घर आ पहुंचे।

हकीम को इबादत में तल्लीन देख वे उसके पास बैठ गए। हकीम को गुरु गोविंद सिंह के आने का पता ही नहीं चला। तभी किसी ने बाहर से आवाज लगाई-'हकीम जी, मेरे पड़ोसी की तबीयत बहुत खराब है। उसे बचा लीजिए।' आवाज सुनकर जब हकीम ने आंखें खोलीं तो गुरु गोविंद सिंह को पास बैठा पाया। वह असमंजस में पड़ गया कि उस आदमी के साथ जाए या इतनी दूर से आए गुरुजी की सेवा करे। हकीम ने उस आदमी के साथ जाने का निश्चय किया और रोगी का समुचित इलाज करने के बाद वापस लौटा।

लौटने पर उसने देखा कि गुरु गोविंद सिंह अभी तक उसके इंतजार में बैठे थे। गुरुजी को इतना इंतजार कराने के लिए उसे बड़ा अपराधबोध हुआ। वह उनके पैरों में गिर कर क्षमा मांगने लगा। गुरुजी ने हकीम को गले से लगा लिया और बोले-'मैं तुम्हारे कर्तव्य पालन और सच्चे सेवा भाव से बहुत प्रसन्न हूं। मेरे यहां होने के बावजूद तुम मरीज की सेवा करने गए। सच बात यह है कि दुखियों की सेवा ही गुरु को सच्ची सेवा देती है। तुमने अपना कर्तव्य निभाकर मुझे ऐसी ही खुशी प्रदान की है।'

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Monday, 27 July 2015

Adopt healthy lifestyle & say no to tobacco


According to a study by Indian Council of Medical Research,  'Head and Neck cancer' is among the top most cancers affecting Indian men and the third most common ailment among women. The National Centre for Disease Informatics and Research, Bengaluru in its report has stated that between 2007-2011, Head and neck cancer cases accounted for 30 and 10 percent of total cancers in males and females in the country.
Doctors say that  there has been an alarming increase in incidence of head and neck cancer cases over the past decade in developing countries like India and it is mainly due to alcohol consumption and tobacco. Fifty percent of head and neck cancers are oral cancers or mouth cancers which is the  commonest among all HNSC cancers. Around 50 per cent of the affected people die within 12 months of its diagnosis. Throat Cancer is next to oral cancer in terms of prevalence, it said.
However, if experts of the disease are to be believed  "almost 80 percent of the head and neck cancers are preventable since the majority of them are tobacco induced - smoke or the smokeless forms. To draw the world's attention to effective care and control of head and neck cancer, the International Federation of Head and Neck Oncologic Societies (IFHNOS)  has declared  July 27  as declared World Head Neck Cancer Day.


On This day, let us take pledge to say no to tobacco and adopt healthy lifestyle as stopping tobacco use and adopting a healthy lifestyle can prevent almost 80 percent of head and neck cancer cases in India.

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शब्द ब्रह्म है .....


शब्द ब्रह्म है। भारतीय दर्शकों में शब्द को उत्तम प्रमाण माना गया है। इस संदर्भ में एक अत्यंत प्रचलित कथा का उल्लेख करना यहां युक्तिसंगत होगा। कथा इस प्रकार है — दस व्यक्तियों ने बरसाती नदी पार की। पार पहुँचने पर यह जांचने के लिए कि दसों ने नदी पार कर ली है, कोई नदी में डूब तो नहीं गया, एक ने गिनना शुरू किया।

उसके अनुसार उनका एक साथी नदी में बह गया था। एक-एक करके सभी ने गिनती की, प्रत्येक का यही मानना था कि कोई बह गया है। सभी उस दसवें व्यक्ति के लिए रोने और विलाप करने लगे। वहाँ से गुज़र रहे एक बुद्धिमान व्यक्ति ने जब उनसे रोने तथा विलाप करने का कारण पूछा, तो उन्होंने सारी बात कह सुनाई। उस व्यक्ति ने उनको एक पंक्ति में खड़ा होने को कहा। जब सब पंक्ति में खड़े हो गए, तब उनमें से एक को बुलाकर उससे गिनने को कहा। उस व्यक्ति ने नौ तक गिनती गिनी और चुप हो गया।

तब आगन्तुक ने कहा दसवें तुम हो’ इतना सुनते ही सारा रोना-विलाप करना अपने आप, बिना किसी प्रयास के समाप्त हो गया। आगंतुक ने क्या किया ? उसके शब्दों ने ही रोने-बिलखने को विदाई दिलवा दी। 

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Saturday, 25 July 2015

जाति से नहीं कर्म से होती है पहचान

एक दिन राजकुमार अभय कुमार को जंगल में नवजात शिशु मिला। वह राजकुमार उसे अपने घर ले आया और उसका नाम जीवक रख लिया। अभय कुमार ने बच्चे को खूब पढ़ाया-लिखाया। जब जीवक बड़ा हुआ तो उसने अभय कुमार से पूछा, 'मेरे माता-पिता कौन हैं?' अभय कुमार ने उस जीवक से कुछ भी छिपाना ठीक न समझते हुए उसे सारी बात बता दी। लेकिन यह सुनकर जीवक बोला, 'मैं आत्महीनता का भार लेकर कहां जाऊं।'

इस बात पर अभय कुमार ने कहा, तुम तक्षशिला विद्या अध्ययन करने जाओ। जीवक विद्या अध्ययन के लिए चल पड़ा। विद्यालय में प्रवेश करते समय वहां के आचार्य ने जीवक से पूछा, 'बेटा! तुम्हारे माता-पिता का क्या नाम है? तुम्हारा कुल क्या है ? तुम्हारा गोत्र क्या है ?' इस सभी प्रश्नों के उत्तर जीवक ने सही-सही दिए। इस बात से प्रसन्न होकर आचार्य ने जीवक को विद्यालय में प्रवेश दे दिया। जीवक ने वहां कठोर परिश्रम करते हुए आयुर्वेदाचार्य की उपाधि ली। उसके आचार्य चाहते थे कि जीवक मगध जाकर वहां लोगों का उपचार करे। जब यह बात जीवक को पता चली तो उसने आचार्य से कहा, मैं जहां भी जाउंगा तो लोग मेरे माता-पिता और कुल-गोत्र के बारे में पूछेंगे। मैं यहीं रहना चाहता हूं।

किन आचार्य बोले, 'तुम्हारी प्रतिभा और ज्ञान ही तुम्हारा कुल और गोत्र है। तुम जहां भी जाओगे वहां तुम्हें सम्मान मिलेगा। तुम लोगों की सेवा करोगे। इसी से तुम्हारी पहचान बनेगी। क्योंकि कर्म से ही मनुष्य की पहचान होती है, कुल और गोत्र से नहीं।' इस तरह का आत्मविश्वास फिर से जाग गया और वह आर्युवेदाचार्य के रूप में पूरे मगध राज्य में प्रसिद्ध हो गया।

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