हमारी यह भूमि वंदनीय है। यहां सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग तक स्वयं ईश्वर ने अवतार लिया है। सृष्टि रचयिता ने भक्ति-ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। कभी भक्ति का मर्म हमें समझाया तो कभी तत्व को आत्मसात करने की बात कही। ईश्वर अवतारों में भगवान दत्तात्रेय का अवतार बहुत पहले हुआ है। सतयुग के इस अवतार का प्रयोजन था व्यक्ति ज्ञान तत्व के माध्यम से विकास करे। श्री ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का एक स्वरुप भगवान दत्तात्रेय है, जो क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार के देवता है। वे सर्वशक्तिमान हैं, वे गुणातीत है।
भगवान दत्तात्रेय महर्षि अत्रि एवं माता अनुसुइया के पुत्र है। हम देखते है कि कोई शिव को मानता है तो कोई विष्णु की उपासना करता है तो कोई इस प्रकृति को ही देव तत्व बनाता है। जब हम तीनों को एकत्र करते है तो वही भगवान दत्तात्रेय का चिंतन एवं स्मरण है। तीनों शक्तियों की एकरूपता हमें नवीन ऊर्जा प्रदान करती है। भगवान दत्तात्रेय तीनों स्वरूपों में हैं। प्रथम ब्रह्मा जो ज्ञान के रूप में हैं। ज्ञान को कर्म के रूप में सार्थक करने के लिए भगवान विष्णु हैं और कर्म को आचरण में लाकर उस आनंद अवस्था को समाधि में प्रकट करने के लिए महेश रूप है। इन तीनों तत्वों से मिलकर बना हुआ जीवन भगवान दत्तात्रेय कहा जाता है। उनकी भक्ति परंपरा, योग तत्व अति प्राचीन है, परंतु सद्गुणों को धारण करने के कारण वे आज भी शाश्वत हैं, स्मरणीय हैं।
भगवान दत्तात्रेय को स्मृतगामी इसलिए कहा जाता है कि उनके गुणों को चिंतन कर हम अपने गुणों को बढ़ाते हैं। सद्गुणों को धारण करने की प्रेरणा हमें भगवान दत्तात्रेय से प्राप्त होती है। योगी लोग उन्ही का ध्यान करते हैं। दत्तात्रेय का चिंतन ही ज्ञान प्राप्त कराकर इस जगत में रहते हुए निर्लिप्त रहने की प्रेरणा देता है। अपने जीवन में अनेक गुरुओं को बनाकर उन्होंने मानव जाति को निरंतर ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रेरित किया है। इसी से आज तक व्यक्ति मानव कल्याण के कार्यो में रहकर अपना जीवन सफल मानता है।
सर्वशक्तिमान यह जानता है कि हमारे अंदर कौन सी भावना है, जो हमें मानव कल्याण की और ले जाती है। आज जहां हम अपने संबंधों को संकुचित कर लेते है और स्वार्थ के धरातल पर अपना चिंतन करते हैं तो यह चिंतन और स्वार्थपूर्ण जीवन हमें निश्चित ही पतन के रास्ते पर ले जाता है। व्यक्ति का पतन, समाज का पतन राष्ट्र के टुकडे-टुकडे कर देता है। हमारा राष्ट्र टुकडे-टुकडे होने से बचे, इसके लिए चिंतन का दायरा विस्तृत करना होगा। इसके लिए हमें भगवान दत्तात्रेय के सद्गुणों को आत्मसात करना होगा।
सद्गुरु दत्त सृष्टि के पालनहार है। वे ही सदैव वंदनीय हैं। दत्त अर्थात जगतगुरु, जो हमारे अंतर में गुरु तत्व स्थापित करता है। उनके उपदेशों को आचरण में लाने पर असीम शांति प्राप्त होती है। 'अ' अर्थात जो मध्य से अंत तक पवित्र है, 'व' अर्थात जिसने वासना का त्याग किया है, 'धू' अर्थात चित्त के पापों से दूर रहने वाला, 'त' अर्थात जिसने तत्व शक्ति को धारण किया हो। इस संसार में जितने भी तत्व है, उन सबके शक्तिपुंज भगवान दत्तात्रेय है। वे अपने चौबीस गुरुओं के लिए प्रसिद्ध है। गुरुओं के गुरु, जो गुरु तत्व को मनुष्य को प्रदान करते हैं। मनुष्य तो अज्ञानी है, उसे हर क्षण विनम्रता का भाव रखते हुए जीवन में सीखने की प्रेरणा लेना चाहिए। इसलिए कि हम अपने कर्म सोच-विचार कर करें। भगवान दत्तात्रेय के इसी भाव से हमारे अंतर में सेवा का भाव जाग्रत होता है। सेवा से त्याग और समर्पण की भावना प्रबल होती है। आज व्यक्ति अपने सुख के लिए सब कुछ चाहता है, परंतु दूसरों के लिए नहीं सोचता, इसलिए आज समाज का संतुलन बिगड़ रहा है।
सद्गुरु हमें सद्गुणी प्रवत्ति की और ले जाते हैं, यह प्रकृति सद्गुणी हैं। हमारे अंदर अवगुणों से अधिक सद्गुण हैं, फिर हम क्यों अपनी अवगुणी प्रवत्ति पर नियंत्रण नहीं कर पाते ? हमें विचार करना होगा कि भगवान दत्तात्रेय के कौन से गुण लेकर हम अच्छे इंसान बनकर मानवीय धर्म स्थापित कर सकते हैं। सद्गुरु दत्तात्रेय का मूल आधार ज्ञान दान है। एक तपस्वी को, एक ज्ञानी को यह देखना होगा कि वर्तमान में ऐसी कौन सी अवस्था है, जिसमें समाज का एक आधार हमारे सामने हो। इस समाज के पास आँखे हैं, परंतु दृष्टी नहीं। मात्र भाौतिक विकास के आधार पर आधुनिकता का आवरण ओढ़ना विकास नहीं हैं। विकास का अर्थ व्यक्ति का समुचित विकास, अंतर का विकास है। मानवता की मूल अभिव्यक्ति का आधार ज्ञान है। ज्ञान तत्व का नाम ही शिक्षा है।
सद्गुरु दत्तात्रेय प्रत्येक स्थिति में ज्ञानमयी हैं। ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। ज्ञान चर्चा का विषय न होकर आत्मसात करने की प्रक्रिया है। आनंद प्राप्त कर हम परमानंदी अवस्था को धारण कर सकते हैं। वर्तमान का चिंतन क्या है ? समाज में हमारे संबंधों का आधार क्या है ? यह हमें जानना होगा। सृष्टि से विश्व का निर्माण हुआ है। विश्व में अनेक राष्ट्रों से समाज, समाज से परिवार और व्यक्ति है। व्यक्ति को जीवन जीने के लिए आनंद है। रिश्ते, नाते है। उत्सव, पर्व है। भोग है, विलासिता है, ऐश्वर्य है, परन्तु अस्तित्व के लिए उसे सद्गुणी व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है। हम अपने संतो के जीवन चरित्र को देखते हैं तो पाते है कि उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा, परंतु उन्होंने अपने त्यागमयी व्यक्तित्व के आधार पर अपने अंतरमन के आनंद को जगत में बाँटा है। यही ज्ञानमयी अवस्था है। जीवनमुक्त ज्ञानी जो अपने आत्म तत्व की अनुभूति करता है, उसकी साधना व्यर्थ नहीं जाती। उसका हर कार्य मानवीय कल्याण की भावना से होता है।
इसलिए दत्त जयंती महोत्सव पर हम परम योगेश्वर सद्गुरु दत्तात्रेय का स्मरण करें, उनकी वंदना करें, जिससे हमारे अंदर के सद्गुणों को वे ऊर्जा प्रदान करें और हम स्वस्थ समाज का निर्माण करें, यही उनके चरणों में विनती है।
॥ जय हिंद, जय धर्म ॥