Monday, 19 December 2016

A self-appraisal is must to know your potential

Friends, Self-appraisal in our lives is essential for our progress and growth and if at any point of time, we find something lack in ourselves by virtue of self-appraisal, we must take notice of this and take corrective measures. Here is a story that will explain you in details about the importance of self-appraisal.
This story goes like this -  A little boy went into a drug store, reached for a soda carton and pulled it over to the telephone. He climbed onto the carton so that he could reach the buttons on the phone and proceeded to punch in seven digits (phone numbers).  The store-owner observed and listened to the conversation.
Boy: ‘Lady, Can you give me the job of cutting your lawn?
Woman: (at the other end of the phone line): ‘I already have someone to cut my lawn.’
Boy: ‘Lady, I will cut your lawn for half the price of the person who cuts your lawn now.’
Woman: I’m very satisfied with the person who is presently cutting my lawn.
Boy: (with more perseverance) : ‘Lady, I’ll even sweep your curb and your sidewalk, so on Sundayyou will have the prettiest lawn in all of Palm beach, Florida.’ Woman: No, thank you. With a smile on his face, the little boy replaced the receiver.  The store-owner, who was listening to all this, walked over to the boy.
Store Owner: ‘Son… I like your attitude; I like that positive spirit and would like to offer you a job.’
Boy: ‘No thanks.’
Store Owner: But you were really pleading for one.
Boy: No Sir, I was just checking my performance at the Job I already have. I am the one who is working for that lady I was talking to!’ Moral of this story  is that we must do a ‘Self Appraisal’ of ourselves.  Every time if we don’t get ahead of others, we blame others for it.  We should look to our self and compare, find own weaknesses and work hard to throw away weaknesses.  Always Work Hard, Honest and with full Dedication.  It will always pay up.

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Saturday, 17 December 2016

आधी रोटी का कर्ज...



मित्रों संस्कृत में एक श्लोक है -- कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति । इसका अर्थ है पुत्र कपूत  हो सकता है पर माता कभी कुमाता नहीं होती। उनका स्थान हम सबके जीवन में देवताओं से भी ऊपर है।  हममें से कोई भी मातृ एवं पितृ ऋण से मुक्त नहीं हो सकते, चाहे हम सारी दुनियां ही क्यों ना उनके क़दमों में न्योछावर कर दें। ऐसे में यदि कोई हमारी माँओं पर मिथ्या लांछन लगाए तो हम कदापि नहीं बर्दास्त कर सकते। तो चलिए आज इसी सन्दर्भ में मैं आप सबको एक कथा सुनाता हूँ। .......   

पत्नी बार बार मां पर इल्जाम लगाए जा रही थी और पति बार बार उसको अपनी हद में रहने की कह रहा था
लेकिन पत्नी चुप होने का नाम ही नही ले रही थी व् जोर जोर से चीख चीखकर कह रही थी कि
"उसने अंगूठी टेबल पर ही रखी थी और तुम्हारे और मेरे अलावा इस कमरें मे कोई नही आया अंगूठी हो ना हो मां जी ने ही उठाई है।।
बात जब पति की बर्दाश्त के बाहर हो गई तो उसने पत्नी के गाल पर एक जोरदार थप्पर दे मारा। 
अभी तीन महीने पहले ही तो शादी हुई थी ।
पत्नी से थप्पर सहन नही हुआ, वह घर छोड़कर जाने लगी और जाते-जाते पति से एक सवाल पूछा कि तुमको अपनी मां पर इतना विश्वास क्यूं है..??
तब पति ने जो जवाब दिया उस जवाब को सुनकर दरवाजे के पीछे खड़ी मां ने सुना तो उसका मन भर आया।  पति ने पत्नी को बताया कि
"जब वह छोटा था तब उसके पिताजी गुजर गए मां मोहल्ले के घरों मे झाडू पोछा लगाकर जो कमा पाती थी उससे एक वक्त का खाना आता था। 
मां एक थाली में मुझे परोसा देती थी और खाली डिब्बे को ढककर रख देती थी और कहती थी मेरी रोटियां इस डिब्बे में है। 
बेटा तू खा ले।  मैं भी हमेशा आधी रोटी खाकर कह देता था कि मां मेरा पेट भर गया है मुझे और नही खाना है। 
मां ने मुझे मेरी झूठी आधी रोटी खाकर मुझे पाला पोसा और बड़ा किया है। 
आज मैं दो रोटी कमाने लायक हो गया हूं लेकिन यह कैसे भूल सकता हूं कि मां ने उम्र के उस पड़ाव पर अपनी इच्छाओं को मारा है,
वह मां आज उम्र के इस पड़ाव पर किसी अंगूठी की भूखी होगी ....
यह मैं सोच भी नही सकता।  तुम तो तीन महीने से मेरे साथ हो, पर मैंने तो मां की तपस्या को पिछले पच्चीस वर्षों से देखा है...
यह सुनकर मां की आंखों से छलक उठे वह समझ नही पा रही थी कि बेटा उसकी आधी रोटी का कर्ज चुका रहा है या वह बेटे की आधी रोटी का कर्ज...

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Saturday, 10 December 2016

जीवन के समस्या रूपी गाँठों को विवेक से सुलझाएँ।


भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे । बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे ।
वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे ; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, ‘ मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं , अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी ?’

एक शिष्य ने उत्तर में कहा,” गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है । दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।”

“सत्य है !”, बुद्ध ने कहा ,” अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ।”यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, “तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?”
“नहीं-नहीं , ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। “, एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।
बुद्ध ने कहा, ‘ ठीक है , अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा ?’
शिष्य बोला ,’”इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था  और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं। “

“मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया , लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ ?

मित्रों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं। हम सभी को इस बात को समझना होगा कि यदि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा । आवश्यकता है हम अपने अपने जीवन के समस्या रूपी गांठों को विवेक से सुलझाएं। 

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Tuesday, 6 December 2016

कार्य के पीछे का उदयेश समझे

एक महाराज थे जो रोज जंगल मैं जाकर साधना करते थे जंगल मैं जाते समए एक नदी पड़ती थी नदी के पास मैं एक स्मशान हुआ करता था तो एक दिन महाराज गए तो उन्होंने देखा तो एक स्त्री की अध् जली लाश वहा पड़ी है हिन्दू शास्त्र के अनुसार अगर कोई भी लाश को पूरा जला नहीं देते तो आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती और आत्मा भटकती है तो इसलिए उन्होंने देखा के लाश को कुछ कुत्ते नोच के खा रहे है और कुत्तो को वो भागने जाते तो कुत्ते उन पर आक्रमण कर रहे थे. तो वो दौड़े दौड़े आश्रम मैं आ गये वो पुरे पसीने पसीने में थे आकर अपने शिष्य को बोलते है तुरंत मुझे साडी, चोली, घगरा, घुंगरू दो, पुरे शृंगार का सामान दो दुल्हन को सजाना है, दारू की बोतल लाओ और मास के टुकड़े लेके आओ और मेरे पीछे कोई नहीं आएगा. सरे शिष्य सोचते है क्या हमारी किस्मत फुट गयी क्या गुरु बनाया है ये तो साला ऐसा है,दुषचरित्र है, बिलकुल पतित है, हाय हाय I जिस गुरु को उनके विचार को समाज तक पहोंचने के लिए ५० वर्षो की विनती करनी पड़ी, गुरूजी केरेक्टर्लेस है पुरे समाज मे ये बताने के लिए वो लोगो को ३० सेकंड से कम समाय लगा और पत्थर मरने की भी तैयारी हो गई I गुरूजी को कुछ फरक नहीं पड़ा गुरूजी ने सामान उठाया उन शिष्यों ने भी दे दिया वो बोले जा ले मर हमारे तो भाग फुट गए, हस रहे थे सब गुरूजी पर I उसमे एक दीप करके एक लड़का था वो बहोत होशियार था वो सोचने लगा गुरूजी को ये हमें बताने की जरुरत क्या पड़ी वो चाहते तो खुद भी कर सकते थे बिना बताय हमें सार्वजनिक रूप से आकर बताने की जरुरत क्या थी मैं गुरु के साईड मैं हु और वो जाता है गुरु के साथ मैं I दीप ने क्या देखा की गुरूजी वो लाश को कुत्तो के शिकंजे से छुड़ाने के लिए उन्होंने वो मास के टुकडे फेके तो सब कुत्ते फेके हुए मास के टुकड़े की तरफ आ गये और लाश को कटने से बचा लिया और अपनी बिटिया की तरह उसका शृंगार किया और शृंगार करके उसको पूर्ण अग्नि दी ओर वह जो दारु की बोतल थी वो उस पे डाल दिक्योंकि वह स्प्रिट का कम करति हे और कुछ परीक्षा भी लेनी थी शिष्यों की I सारे शिष्य भी उनके पीछे गुस्से में आते हे मरो मरो और जब वो वहा देखते है और गुरु की परिस्तिथि देखते है तो उनकी गर्दन शर्म से झुक जाती है. गुरूजी उनको देख के हँसते है उनको कुछ नहीं बोलते और जंगल की तरफ चले जाते है.
सारांस ऐसा है : जब तक आप को ज्ञात ना हो की जो व्यक्ति आप के साथ जुड़ा हुआ है वो जो कुछ भी कर रहा है उसके पीछे का उद्येश क्या है तब तक निष्कर्ष और निर्णय पर पहूँच कर उसके चरित्र पर या फिर उसकी प्रवत्ती पर या फिर उसकी इंसानियत को आप बदनाम मत करो क्या पता उसमें एक ऐसी मानवता की भावना छुपी हो जो आप को ज़िन्दगी भर आत्म ग्लानी से जलाती रहे I
डा. भय्यू महाराज

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Saturday, 26 November 2016

संविधान दिवस पर गुरु संदेश

संविधान एक ग्रन्थ है ,जो हमें आदर्श नागरिकता का बोध करता है ।
किसी भी राष्ट्र को सुचारू रूप से चलने के लिए नीति नियम होते है। वह नीति नियम जिसके माध्यम से जिस भूमि पर हम रह रहे है,जिसे हम अपना मानते है,उसकी रक्षा,उसका विकास और उसकी संस्कृति को अपनाने के लिए नियम। जिस्व किसी को तोड़ने का अधिकार नहीं है।उन नियमो का पालन करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
अश्त्र में रहने वाला व्यक्ति,जिससे परिवार बनता है और परिवार से मिलकरमिलकर समाज बनता है और अनेक समाज मिलकर एक राष्ट्र होता है अर्थात जो व्यक्ति है,वही राष्ट्र है। इसलिए कहते है की व्यक्ति विकास राष्ट्र का विकास है और है और व्यक्ति का पतन राष्ट्र का पतन है।
विश्व के भौगोलिक धरातल पर हम बात करते है तो एक भूमि का हिस्सा राष्ट्र कहा जाता है। जहा नदिया,पर्वत उस राष्ट्र की संपत्ति होते है फिर हर एक राष्ट्र की सीमाए निर्धारित होती है उन सीमाओ की रक्षा करने लिए प्रहरी होते है,जिन्हे हम सैनिक कहते है। हर सैनिक अपने राष्ट्र की मर्यादा ,संस्कृति और उसकी भौगोलिक मर्यादा,संस्कृति और उसकी भौगोलिक सीमा की ऱक्षा करता है।
संविधान जागरण अभियान का उद्देश्य है की कई भारतवासी आज भी हमारे संविधान को नहीं जानते। घर में कार्य करने वाली महिला हो या ऑफिस में कार्य करने वाले व्यक्ति। बच्चे भी संविधान को नहीं जानते। हमारी शिक्षा में विकास हो रहा है ,परन्तु कई जानकारिया वह आज भी बच्चो को ठीक से बताने में असमर्थ है।हमारे संविधान में नीति नियम,कर्तव्य,धर्म,एकता सभी को विस्तार से लिखा है। आदर्श नागरिकता के गुण को लिखा है।जो नागरिक राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र के संविधान के अनुसार चलता है, वह राष्ट्र का आदर्श नागरिको का निर्माण करना है।इसलिए हमारा संविधान जागरण सफल हो,ऐसा मै चाहता हूँ ।
आज आवश्यकता ही जनसंख्या को आदर्श नागरिकता मे परिवर्तित करने कि।यह कार्य मात्र राष्ट्र ग्रंथ हि कर सकता है ।विचारणीय तथ्य है कि हमारे राष्ट्र को एक प्रजातंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित हुए ६३ वर्ष हो चुके है,परंतु सही मायनो मे हमारा संविधान समाज की अंतिम पंक्ति तक नहीं पहुंच सका है। समाज में आदर्श नागरिक निर्माण करने की पहल से ही संविधान का सही अर्थ निरूपित होगा मानवीय मूल्यों की रक्षा करने,अश्त्र को सशक्त बनाने समता एवं बन्धुतत्व का आधार देने के लिए संविधान आवश्यक है। संविधान एक ऐसा ग्रन्थ है,जो राष्ट्र प्रकट करता है तथा कर्तव्य एवं अधिकारों की सही राह दिखता है,जिसके प्रकाश से राष्ट्र हजारो वर्षो तक जिवंत बना रहता है। इस राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक संविधान का अर्थ समझे और उसे आत्मसात करे यही हमारा मुख्या ध्येय हो।
श्री भय्यूजी महाराज

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Monday, 21 November 2016

Never make a living out of dishonest means


To be honest as this world goes is to be one man picked out of ten thousand, said Willian Shakespeare, the author of Hemlet.  Truely, honesty is a person's most valuable asset. His or her good name, good reputation, and good word depend on the individual's quality of honesty. A business that operates under the principles of profound honesty is elevated within the community. It is respected and treasured. The absence of honesty is a liability to an individual or business.
Making a life out of dishonest means will never pay you. Here is a story which throws ample light on this fact. The story goes like this.
A milkman became very wealthy through dishonest means. He had to cross a river daily to reach the city where his customers lived. He mixed the water of the river generously with the milk that he sold for a good profit.
One day he went around collecting the dues in order to celebrate the wedding of his son. With the large amount thus collected he purchased plenty of rich clothes and glittering gold ornaments. But while crossing the river the boat capsized and all his costly purchases were swallowed by the river.
The milk vendor was speechless with grief. At that time he heard a voice that came from the river, “Do not weep. What you have lost is only the illicit gains you earned through cheating your customers.
MORAL OF THIS STORY : Honest dealings are always supreme. Money earned by wrong methods will never remain for ever.

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Saturday, 19 November 2016

Knock down your adversity with courage

Friends, each of us in our lives faces adversity and passes through troubled times. But many of us give in and buckle under acute mental pressure when adversity knocks our door. While many of us who are not able to sustain adversity and troubled times either commit suicide or think of it to get rid of agonies of our lives. We must stop looking at adversity the way we are and develop temperament, muster courage to withstand and overcome miseries in our lives. Here is a story which can make you strong and bold internally and would certainly help you change your ways to look at adversity and overcome it. The story goes like this –
A young woman went to her mother and told her about her life and how things were so hard for her. She did not know how she was going to make it and wanted to give up. She was tired of fighting and struggling. It seemed that, as one problem was solved, a new one arose. Her mother took her to the kitchen. She filled three pots with water and placed each on a high fire. Soon the pots came to a boil. In the first, she placed carrots, in the second she placed eggs, and in the last she placed ground coffee beans.
She let them sit and boil, without saying a word. In about twenty minutes, she turned off the burners. She fished the carrots out and placed them in a bowl. She pulled the eggs out and placed them in a bowl. Then she ladled the coffee out and placed it in a bowl. Turning to her daughter, she asked, "Tell me, what do you see?"
"Carrots, eggs, and coffee," the young woman replied. The mother brought her closer and asked her to feel the carrots. She did and noted that they were soft. She then asked her to take an egg and break it. After pulling off the shell, she observed the hard-boiled egg. Finally, she asked her to sip the coffee. The daughter smiled as she tasted its rich aroma. The daughter then asked, "What does it mean, mother?"
Her mother explained that each of these objects had faced the same adversity - boiling water - but each reacted differently. The carrot went in strong, hard and unrelenting. However, after being subjected to the boiling water, it softened and became weak.
The egg had been fragile. Its thin outer shell had protected its liquid interior. But, after sitting through the boiling water, its inside became hardened! The ground coffee beans were unique, however. After they were in the boiling water, they had changed the water.
"Which are you?" the mother asked her daughter. "When adversity knocks on your door, how do you respond? Are you a carrot, an egg, or a coffee bean?" Think of this: Which am I? Am I the carrot that seems strong but, with pain and adversity, do I wilt and become soft and lose my strength? Am I the egg that starts with a malleable heart, but changes with the heat? Did I have a fluid spirit but, after a death, a breakup, or a financial hardship, does my shell look the same, but on the inside am I bitter and tough with a stiff spirit and a hardened heart? Or am I like the coffee bean? The bean actually changes the hot water, the very circumstance that brings the pain. When the water gets hot, it releases the fragrance and flavour.

If you are like the bean, when things are at their worst, you get better and change the situation around you. When the hours are the darkest and trials are their greatest, do you elevate to another level? How do you handle adversity? Are you a carrot, an egg, or a coffee bean?

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Wednesday, 9 November 2016

सफलता पाने के लिए लक्ष्य निर्धारित करें

मित्रों, किसी कार्य को करने की अगर हमारे दिल से इच्छा हो तो इसका अर्थ है कि हम वह कार्य करने के लिये हम प्रेरित हुये हैं और जिस कार्य के लिये हम प्रेरित हुए हैं वह हम अच्छी तरह कर सकते हैं। प्रेरणा हम किसी से भी ले सकते हैं चाहे वो बड़ा हो या छोटा, मनुष्य हो या कोई प्राणी। जैसे चीटी दीवार पर चढाती है और बार-बार गिरती है लेकीन आखिर वो उसकी मंजिल तक पहुँच ही जाती है, वैसे ही छोटा बच्चा उठता है, गिरता है फिर उठता है और गिरता है लेकीन वह जब तक उठ कर खड़ा नहीं हो जाता तब तक अपना लक्ष्य नहीं छोड़ता।
हमारे जीवन में भी कई प्रेरणास्थान हैं जिन्हें देखकर या उनके कार्यो को देखकर हमें प्रेरणा मिलाती है। स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, चाणक्य की तरह हमारे देश में ऐसे असंख्य महापुरुष, ग्यानी हुए हैं जिनसे हम प्रेरित होते हैं। पर यह हम पर निर्भर करता है कि हम प्रेरणा सकारात्मक लेते हैं या नकारात्मक।
तो चलिए इस सन्दर्भ में मैं आप सबको एक कथा सुनाता हूँ। कथा कुछ इस तरह है -- एक आदमी के दो बेटे थे। वो दोनों बड़े हुये तो उसमें एक बड़ा व्यवसायिक बना और दूसरा शराबी। एक दिन उसके दोस्त ने उस शराबी से पूछा कि तुम ऐसे किस वजह से बने ? तो उसने कहा कि बचपन से ही मैंने मेरे पिताजी को शराब पीते देखा, जुआ खेलते देखा। मेरे सामने हमेशा वो ऐसे आते रहे। मैंने उनके गलत आदर्श देखे और मैं उनके जैसा बना।
उसी दोस्त ने दुसरे व्यवसायिक हुये बेटे से पूछा कि तुम्हारे उद्योगपति बनने का श्रेय किस को जाता है, तो उसने कहां की “मेरे पिताजी को मैंने बचपन से ही हर रोज शराब पीकर जुआ खेलते हुये देखा। उनको देख कर मुझे लगा कि मुझे अपने पिताजी की तरह नहीं बल्कि एक अच्छा इंसान बनना है। तदनुसार मैंने अपने जीवन के उद्देश्य निर्धारित किये और फिर इन उद्देश्यों को पूरा लिए अपने कर्तव्यपथ पर चलता रहा।
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मित्रों, इस कथा का सार यह है कि जीवन में हम क्या लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं, यह स्वयं पर निर्भर करता है। हमारे आसपास जो भी घटनाएँ घटित होती हैं उससे हम सीख लेकर अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं तहत स्वयं एवं समाज के समक्ष एक अच्छे नागरिक बनने का दृश्टान्त स्थापित कर सकते हैं। यदि हमें अपने जीवन में सफलता पानी है तो उसके लिये हमें जीवन में बड़ा लक्ष्य रखना होंगा।

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Monday, 17 October 2016

यह भी वक़्त बीत भी जायेगा।

एक बडी प्रसिद्ध सुफी कहानी है। एक सम्राट ने अपने सारे बुद्धिमानों को बुलाया और उनसे कहा – मैं कुछ ऐसे सुत्र चाहता हूं, जो छोटा हो, बडे शास्त्र नहीं चाहिए, मुझे फुर्सत भी नहीं बडे शास्त्र पढने की। वह ऐसा सुत्र हो जो एक वचन में पूरा हो जाये और जो हर घडी में काम आये। दूख हो या सुख, जीत हो या हार, जीवन हो या मृत्यु सब में काम आये, तो तुम लोग ऐसा सुत्र खोज लाओ। उन बुद्धिमानों ने बडी मेहनत की, बडा विवाद किया कुछ निष्कर्ष नहीं हो सका। वे आपस में बात कर रहे थे, एक ने कहा- हम बडी मुश्किल में पडे हैं बड़ा विवाद है, संघर्ष है , कोई निष्कर्ष नहीं हो पाया, हमने सुना हैं एक सूफी फकीर गांव के बाहर ठहरा है वह प्रज्ञा को उपलब्ध संबोधी को उपलब्ध व्यक्ति है, क्यों न हम उसी के  पास चलें ?

वे लोग उस सुफी फकीर के पास पहूंचे उसने एक अंगुठी पहन रखी थी अपनी अंगुली में वह निकालकर सम्राट को दे दी और कहा – इसे पहन लो। इस पत्थर के नीचे एक छोटा सा कागज रखा है, उसमें सुत्र लिखा है, वह मेरे गुरू ने मुझे दिया था, मुझे तो जरूरत भी न पडी इसलिए मैंने अभी तक खोलकर देखा भी नहीं ।
उन्होंने एक शर्त रखी थी कि जब कुछ उपाय न रह जायें, सब तरफ से निरूपाय हो जाओं, तब इसे खोलकर पढना, ऐसी कोई घडी न आयी उनकी बडी कृपा है इसलिए मैंने इसे खोलकर पढा नहीं, लेकिन इसमें जरूर कुछ राज होगा आप रख लो। लेकिन शर्त याद रखना इसका वचन दे दो कि जब कोई उपाय न रह जायेगा सब तरफ से निरूपाय असहाय हो जाओंगे तभी अंतिम घडी में इसे खोलना।

क्योंकि यह सुत्र बडा बहुमूल्य है अगर इसे साधारणतः खोला गया तो अर्थहीन होगा। सम्राट ने अंगुठी पहन ली, वर्षो बीत गये कई बार जिज्ञासा भी हुई फिर सोचा कि कही खराब न हो जाए, फिर काफी वर्षो बाद एक युद्ध हुआ जिसमें सम्राट हार गया, और दुश्मन जीत गया। उसके राज्य को हडप लिया |
वह सम्राट एक घोडे पर सवार होकर भागा अपनी जान बचाने के लिए राज्य तो गया संघी साथी, दोस्त, परिवार सब छुट गये, दो-चार सैनिक और रक्षक उसके साथ थे वे भी धीरे-धीरे हट गये क्योंकि अब कुछ बचा ही नहीं था तो रक्षा करने का भी कोई सवाल न था।
दुष्मन उस सम्राट का पीछा कर रहा था, तो सम्राट एक पहाडी घाटी से होकर भागा जा रहा था। उसके पीछे घोडों की आवाजें आ रही थी टापे सुनाई दे रही थी। प्राण संकट में थे, अचानक उसने पाया कि रास्ता समाप्त हो गया, आगे तो भयंकर गडा है वह लौट भी नही सकता था, एक पल के लिए सम्राट स्तब्ध खडा रह गया कि क्या करें ?

फिर अचानक याद आयी, खोली अंगुठी पत्थर हटाया निकाला कागज उसमें एक छोटा सा वचन लिखा था यह वक़्त भी बीत जायेगा। सुत्र पढते ही उस सम्राट के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी उसके चेहरे पर एक बात का खयाल आया सब तो बीत गया, में सम्राट न रहा, मेरा साम्राज्य गया, सुख बीत गया, जब सुख बीत जाता है तो दुख भी स्थिर नहीं हो सकता।
शायद सुत्र ठीक कहता हैं अब करने को कुछ भी नहीं हैं लेकिन सुत्र ने उसके भीतर कोई सोया तार छेंड दिया। कोई साज छेड दिया। यह वक़्त भी बीत जायेगा ऐसा बोध होते ही जैसे सपना टुट गया। अब वह व्यग्र नहीं, बैचेन नहीं, घबराया हुआ नहीं था। वह बैठ गया।
संयोग की बात थी, थोडी देर तक तो घोडे की टांप सुनायी देती रहीं फिर टांप बंद हो गयी, शायद सैनिक किसी दूसरे रास्ते पर मूड गये। घना जंगल और बिहड पहाड उन्हें पता नहीं चला कि सम्राट किस तरफ गया है। धीरे-धीरे घोडो की टांप दूर हो गयी, अंगुठी उसने वापस पहन ली।
कुछ दिनों बार दोबारा उसने अपने मित्रों को वापस इकठ्ठा कर लिया, फिर उसने वापस अपने दुष्मन पर हमला किया, पुनः जीत हासिल की फिर अपने सिंहासन पर बैठ गया। जब सम्राट अपने सिंहासन पर बैठा तो बडा आनंदित हो रहा था।
तभी उसे फिर पुनः उस अंगुठी की याद आयी उसने अंगुठी खोली कागज को पढा फिर मुस्कुराया दोबारा सारा आनन्द विजयी का उल्लास, विजयी का दंभ सब विदा हो गया। उसके वजीरों ने पूछा- आप बडे प्रसन्न् थे अब एक दम शांत हो गये क्या हुआ ?
सम्राट ने कहा- जब सभी बीत जायेगा तो इस संसार में न तो दूखी होने को कुछ हैं और न ही सुखी  होने को कुछ है। तो जो चीज तुम्हें लगती हैं कि बीत जायेगी उसे याद रखना, अगर यह सुत्र पकड में आ जाये, तो और क्या चाहिए ? तुम्हारी पकड ढीली होने लगेगी। तुम धीरे-धीरे अपने को उन सब चीजों से दूर पाने लगोेगे जो चीजें बीत जायेगी क्या अकडना, कैसा गर्व, किस बात के लिए इठलाना, सब बीत जायेगा। यह जवानी बीत जायेगी |

याद बन-बन के कहानी लौटी, सांस हो-हो के विरानी लौटी
लौटे सब गम जो दिये दुनिया ने, मगर न जाकर जवानी लौटी।

यह सब बीत जायेगा। यह जवानी, युवा अवस्था,  यह दो दिन की इठलाहट, यह दो दिन के लिए तितलियों जैसे पंख यह सब बीत जाएंगे। यह दो दिन की चहल-पहल फिर गहरा सन्नाटा, फिर मरघट की शान्ति | मित्रों, हमारा यह जीवन सुखों एवं दुखों का संगम है। अतः ना तो हमें सुख के क्षणों में अति आनंदित होना चाहिए और ना दुःख के घड़ी में विलाप करनी चाहिए। जीवन में कुछ भी स्थिर नहीं।  जीवन में बुरा से बुरा वक़्त गुजर जाता है पर उन क्षणों में हमें अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए। 

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Saturday, 8 October 2016

अहंकार को त्यागकर सीखना प्रारम्भ करें

मित्रों, धरती पर जन्म लेने के साथ ही सीखने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है ज्यों हम बड़े होते जाते हैं, सीखने की प्रक्रिया भी विस्तार लेती जाती है, जल्द ही हम उठना, बैठना, बोलना, चलना सीख लेते हैं। इस बड़े होने की प्रक्रिया के साथ ही कभी-कभी हमारा अहंकार हमसे अधिक बड़ा हो जाता है और तब हम सीखना छोड़कर गलतियां करने लगते हैं। यह अंहकार हमारे विकास मार्ग को अवरूद्ध कर देता है। इस सन्दर्भ मैं आप सभी को एक कथा सुनाता हूँ।  

एक समय की बात है रूस के ऑस्पेंस्की नाम के महान विचारक एक बार संत गुरजियफ से मिलने उनके घर गए। दोनों में विभिन्न् विषयों पर चर्चा होने लगी। ऑस्पेंस्की ने संत गुरजियफ से कहा, यूं तो मैंने गहन अध्ययन और अनुभव के द्वारा काफी ज्ञान अर्जित किया है, किन्तु मैं कुछ और भी जानना चाहता हूं। आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं? गुरजियफ को मालूम था कि ऑस्पेंस्की अपने विषय के प्रकांड विद्वान हैं, जिसका उन्हें थोड़ा घमंड भी है अतः सीधी बात करने से कोई काम नहीं बनेगा। इसलिए उन्होंने कुछ देर सोचने के बाद एक कोरा कागज उठाया और उसे ऑस्पेंस्की की ओर बढ़ाते हुए बोले- ''यह अच्छी बात है कि तुम कुछ सीखना चाहते हो। लेकिन मैं कैसे समझूं कि तुमने अब तक क्या-क्या सीख लिया है और क्या-क्या नहीं सीखा है। अतः तुम ऐसा करो कि जो कुछ भी जानते हो और जो नहीं जानते हो, उन दोनों के बारे में इस कागज पर लिख दो। जो तुम पहले से ही जानते हो उसके बारे में तो चर्चा करना व्यर्थ है और जो तुम नहीं जानते, उस पर ही चर्चा करना ठीक रहेगा।''
  
बात एकदम सरल थी, लेकिन ऑस्पेंस्की के लिए कुछ मुश्किल। उनका ज्ञानी होने का अभिमान धूल-धूसरित हो गया। ऑस्पेंस्की आत्मा और परमात्मा जैसे विषय के बारे में तो बहुत जानते थे, लेकिन तत्व-स्वरूप और भेद-अभेद के बारे में उन्होंने सोचा तक नहीं था। गुरजियफ की बात सुनकर वे सोच में पड़ गए। काफी देर सोचने के बाद भी जब उन्हें कुछ समझ में नहीं आया तो उन्होंने वह कोरा कागज ज्यों का त्यों गुरजियफ को थमा दिया और बोले- श्रीमान मैं तो कुछ भी नहीं जानता। आज आपने मेरी आंखे खोल दीं। ऑस्पेंस्की के विनम्रतापूर्वक कहे गए इन शब्दों से गुरजियफ बेहद प्रभावति हुए और बोले - ''ठीक है, अब तुमने जानने योग्य पहली बात जान ली है कि तुम कुछ नहीं जानते। यही ज्ञान की प्रथम सीढ़ी है। अब तुम्हें कुछ सिखाया और बताया जा सकता है। अर्थात खाली बर्तन को भरा जा सकता है, किन्तु अहंकार से भरे बर्तन में बूंदभर ज्ञान भरना संभव नहीं। अगर हम खुद को ज्ञान को ग्रहण करने के लिए तैयार रखें तो ज्ञानार्जन के लिये सुपात्र बन सकेंगे। ज्ञानी बनने के लिए जरूरी है कि मनुष्य ज्ञान को पा लेने का संकल्प ले और वह केवल एक गुरू से ही स्वयं को न बांधे बल्कि उसे जहां कहीं भी अच्छी बात पता चले, उसे ग्रहण करें।''

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Monday, 3 October 2016

Live a meaningful & purposeful life

A girl was standing on the roof of a high building. After finding out that her husband was cheating on her, she wanted to end with her life. After a short hesitation, she made a step forward. The girl fell fast towards the ground. But just before the death, the fear filled her soul. Suddenly she felt like she was in someone’s embrace. She opened her eyes and saw an angel, who was holding her in his hands.
– Why didn’t you let me fall? – She asked with anger.
– I will let you go if you agree to die understanding that there won’t be any memories of you left on earth, nothing.
– How is that? – asked the girl in surprise.
– You don’t have children, who would remember you, your mother is old and she will die soon. And everyone else…they will forget about you soon…
– And my husband? He will blame himself for my death. If he will feel remorse all his life, he will remember me.
– That won’t happen, he doesn’t love you, he is happy with another woman. And he won’t blame himself for a long time, soon he will forget you.
– Fine, I believe you. But I have things, photographs.
– Your apartment will burn down after one year. And all your things will turn into ash…
– But my friends have photos of me.
– You don’t have friends, – the angel said quite coldly.
– But… I am on the collective school photos.
Suddenly, the angel started to unclamp his hands.
– You are letting me go because I proved to you that there will be memories about me left? – The girl asked mockingly.
– No. You are clinging to the strings so hard; you are convincing me that I would let you die, just like others are clinging to some futile opportunities so that they could live. I don’t want to spend these moments with you, because I could help other people during that time. I want to give people a chance to live, not to die. So friends, the moral of this story is that live a meaningful and purposeful life, so that when you are no more in this world, people remember you for all your good works and keep you alive in their memories.

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Saturday, 1 October 2016

अपने शब्दों का चयन सोच समझ कर करें



मित्रों, एक कहावत प्रचलित है -- ”मुंह से निकले शब्द वापस नहीं लिए जा सकते ठीक वैसे ही जैसे धनुष से निकला हुआ तीर कभी वापस नहीं आता ” .  कहने का तात्पर्य यह कि  हमें बड़ी सावधानी से अपने शब्दों का  चयन  करना चाहिए।  बडबोलापन दोस्तों के बीच आपको जरूर लोकप्रियता दिला सकता है लेकिन कभी कभी ये नुकसानदेह होता है क्योंकि पहली बार हमसे मिलने के बाद जो छवि किसी इन्सान के लिए बनती है उसमें उससे हुई हमारी बातचीत का ही शत प्रतिशत योगदान होता है। चलिए इस सन्दर्भ में मैं आप सबको एक कहानी सुनाता हूँ। 

कहानी कुछ इस तरह है - एक आदमी ने किसी बात को लेकर अपने पडोसी को बहुत बुरा भला, पर जब बाद में उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तो वह अपने गलती का पश्चाताप करने चर्च गया।  वंहा जाकर पादरी के सामने  उसने ऍनकइ गलती को स्वीकार।  उसकी बातों को सुनकर पादरी ने उसे एक पंखो से भरा थैला दिया यह कहते हुए  कि वो इस थैले को किसी खुली जगह में जाकर बिखेर दे।  पादरी के कथनानुसार उस व्यक्ति ने वैसा ही किया और जब लौटकर आया तो पादरी ने उसे कहा कि क्या तुम अब जाकर उन पंखो को  वापस इसी थैले में भरके ला सकते हो ? वो आदमी फिर उन पंखों को समेटने के लिए निकल पड़ा। उस स्थान पर जहाँ पर उसने पंखों को बिखेर था, उन पंखों को समेटने की बहुत  कोशिश की पर सफल नहीं हो पाया और मायूस होकर खाली थैला लिए पादरी के पास लौट परा।  पादरी ने उसके मन की दशा को देखते हुए उसे समझाया कि जिस तरह वो पंखों को वापस नहीं समेट सका, ठीक उसी तरह वो लाख पश्चाताप कर ले पर अपने द्वारा कहे गए शब्दों को वापस नहीं ले सकता।  मित्रों, इस कथा से अभिप्राय यह है  कि हम सभी को किसी से बात करते समय अपने द्वारा कहे गए शब्दों का चुनाव सावधानी से करनी चाहिए  क्योंकि कई बार हम अपनी शब्दों के कारण किसी को दुःख पहुंचते हैं और अपनी सफलता को असफलता में बदल देते हैं। 

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Saturday, 24 September 2016

Do Hard Works to Pursue Your Dreams

Friends you can have liberty of dreaming big things in your life, only when you pursue your dreams in letter and spirit and put up hard works to achieve or fulfill your dreams. Merely day dreaming will do no good and you will end up as a looser. Here is a story of a lazy day dreamer and his tattered dreams.
Long time ago there lived a priest who was extremely lazy and poor at the same time. He did not want to do any hard work but used to dream of being rich one day. He got his food by begging for alms. One morning he got a pot of milk as part of the alms. He was extremely delighted and went home with the pot of milk. He boiled the milk, drank some of it and put the remaining milk in a pot. He added slight curds in the pot for converting the milk to curd. He then lay down to sleep.
Soon he started imagining about the pot of curd while he lay asleep. He dreamed that if he could become rich somehow all his miseries would be gone. His thoughts turned to the pot of milk he had set to form curd. He dreamed on; “By morning the pot of milk would set, it would be converted to curd. I would churn the curd and make butter from it. I would heat the butter and make ghee out of it. I will then go to that market and sell that ghee, and make some money. With that money I will buy a hen. The hen will lay may eggs which will hatch and there will be many chicken. These chicken will in turn lay hundreds of eggs and I will soon have a poultry farm of my own.” He kept on imagining.
“I will sell all the hens of my poultry and buy some cows, and open a milk dairy. All the town people will buy milk from me. I will be very rich and soon I shall buy jewels. The king will buy all the jewels from me. I will be so rich that I will be able to marry an exceptionally beautiful girl from a rich family. Soon I will have a handsome son. If he does any mischief I will be very angry and to teach him a lesson, I will hit him with a big stick.”During this dream, he involuntarily picked up the stick next to his bed and thinking that he was beating his son, raised the stick and hit the pot. The pot of milk broke and he awoke from his day dream.
So the moral of this story is that there is no substitute for hard work. Dreams cannot be fulfilled without hard work.

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Monday, 19 September 2016

विश्व को आतंकवाद से मुक्त करने के लिए आध्यात्मिक, वैचारिक क्रांति आवश्यक


उरी में हुए आतंकी घटना में 18 भारतीय सेना के जवानों की शहादत ने एक बार पुनः पुरे देश को झकझोर कर रख दिया है। इस घटना से पुरे देश में आक्रोश व्याप्त है। पर इस तरह की घटनाएं देश में पहली बार नहीं हुई है। आतंकियों द्वारा इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने के बाद हमने हर बार इसकी तीव्रतम भर्त्सना की है, पाकिस्तान से इन आतंकियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की माँग की पर हमारा पडोसी है कि हर बार हमारी मांगों को अनसुना करता रहा है। अब समय आ गया है हम सब आतंक के विरुद्ध अंतिम लड़ाई लड़ें और आतंकवाद को पनाह देने वाले देशों को सामाजिक एवं आर्थिक रूप से बहिस्कृत करें और इन देशों को हथियारों का सप्लाई करना बंद कर दें।
सिर्फ भारत ही नहीं, विश्व का कमोवेश अधिकांश देशों के साथ साथ विकसित देश चाहे वह ब्रिटेन हो, फ्रांस, अमेरिका या फिर मध्य पूर्व खाड़ी का देश, आतंकवाद की घटनाओं से अछूता नहीं है, । धर्म एवं जेहाद के नाम पर विश्व को आतंकित करना बंद होना चाहिए। अगर हम वैश्विक स्तर पर इस्लामिक आतंकवाद के पैदा होने और पनपने के कारणों की विवेचना करें तो हममें से कुछ लोग मानते हैं जेहादी आतंक गरीबी की वजह से फलता-फूलता है, किन्तु यह पूर्ण यथार्थ नहीं हो सकता।
इन धर्म एवं जिहाद के नाम पर आतंक फ़ैलाने वाले के कारण, पुरे विश्व में मुस्लिम समुदाय की छवि धूमिल हो रही है। आवश्यकता है हमारा मुस्लिम समाज चाहे वह दुनिया के किसी भी देश में हो, इन धर्म एवं जेहाद के नाम पर आतंक फैलाने वाले के विरुद्ध एक जुट हो। मैं समझता हूँ पुरे विश्व में अन्याय एवं आतंक को ख़त्म करने के लिए आध्यात्म सबसे बड़ा अस्त्र साबित हो सकता है। आज आवश्यकता है कि हम पुरे विश्व में इस तरह की कुत्सित मानसिकता से ग्रसित लोगों के मन में पल रहे धार्मिक कट्टरता, निर्दयता, हिंसा की भावना को आध्यात्म के माध्यम से नष्ट करें। जब तक यह कार्य नहीं किया जाएगा तब तक आतंकवाद का सिलसिला थमने वाला नहीं है। मात्र सेना, पुलिस और क़ानून की मदद से आतंकवाद को रोकना असंभव है। हमें सम्पूर्ण विश्व को आतंक से मुक्त करने के लिए आध्यात्मिक एवं वैचारिक क्रांति फैलानी होगी और इस तरह के क्रांति का प्रसार करने के लिए हर बुद्धिजीवियों, संतों, आध्यात्मिक गुरुओं को आगे आना होगा। हमारा ट्रस्ट और मैं स्वयं अपने स्तर पर समाज में आध्यात्मिक क्रांति का प्रसार करने में संलग्न हूँ। हमारे ट्रस्ट द्वारा स्थापित कारगिल स्मारक, भारत माता मंदिर, वंदे मातरम् फाउंडेशन, मानवता सेवा सम्मान पुरस्कार समाज में आध्यात्मिकता, सकारात्मकता, एकता फ़ैलाने का एक सार्थक प्रयास है।

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Saturday, 10 September 2016

Never to Give Up


One day a farmer’s donkey fell down into a well. The animal cried piteously for hours as the farmer tried to figure out what to do. Finally he decided the animal was old and the well needed to be covered up anyway it just wasn’t worth it to retrieve the donkey. He invited all his neighbors to come over and help him. They all grabbed a shovel and begin to shovel dirt into the well. At first, the donkey realized what was happening and cried horribly. Then, to everyone’s amazement he quieted down. A few shovel loads later, the farmer finally looked down the well and was astonished at what he saw. With every shovel of dirt that fell on his back, the donkey was doing some thing amazing. He would shake it off and take a step up. As the farmer’s neighbors continued to shovel dirt on top of the animal, he would shake it off and take a step up.
Pretty soon, everyone was amazed as the donkey stepped up over the edge of the well and totted off!.
Friends, life is going to shovel dirt on you, all kinds of dirt. The trick is to not to get bogged down by it. We can get out of the deepest wells by not stopping and by never giving up. So whenever, you are besieged by troubles, shake it off and take a step up.

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Thursday, 8 September 2016

सूर्योदय परिवार द्वारा समाज में साक्षरता बढ़ाने के लिए सार्थक प्रयास

दुनिया में शिक्षा और ज्ञान बेहतर जीवन जीने के लिए ज़रूरी माध्यम है।जीवन में शिक्षा एवं साक्षरता का बहुत महत्व है।  साक्षरता का तात्‍पर्य सिर्फ़ पढ़ना-लिखना ही नहीं बल्कि यह सम्मान, अवसर और विकास से जुड़ा विषय है। वर्तमान में भारत में साक्षरता दर वर्ष 2011 के जनगणना के अनुसार 75.06% है, जो  विश्व की साक्षरता दर 84% से कम है।  यद्द्यपि हमारे देश में केंद्र एवं राज्य स्तर सरकारों द्वारा साक्षरता की दर को बढ़ाने के लिए पिछले कुछ वर्षों में काफी सराहनीय प्रयास किये गए हैं, पर सच यह है कि भारत में अभी भी संसार की सबसे अधिक अनपढ़ जनसंख्या निवास करती है| हमें इस `कलंक' को सामूहिक प्रयास से ख़त्म करना होगा।  इसके लिए आवश्यक है पुरुषों  के साथ-साथ महिलाओं में साक्षरता की दर को तीव्र गति से बढ़ाना। 
हमारे देश में जहाँ पुरुषों की साक्षरता दर 82.14 है वहीं महिलाओं में इसका प्रतिशत मात्र 65.46 प्रतिशत है।  महिलाओं में कम साक्षरता का कारण अधिक आबादी और परिवार नियोजन की जानकारी की कमी है। मुझे यह कहते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि हमारा ट्रस्ट एवं सूर्योदय परिवार समाज में, विशेष कर गरीबों, पारितज्य। महिलाओं एवं समाज के सबसे नीचे तबकों में साक्षरता को प्रोत्साहन देने के लिए विभिन्न स्तरों पर कार्य कर रहा है। आज हमारा ट्रस्ट अपने उपलब्ध संसाधनों के माध्यम से  मध्य प्रदेश  एवं महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में विद्यालयों की स्थापना कर  हज़ारों गरीब तबकों, सूखा एवं आत्महत्या ग्रस्त किसानों, कैदियों, पारधी समाज एवं अनाथ बच्चों को शिक्षित कर ना सिर्फ उन्हें संस्कारित कर रहा है बल्कि उन्हें आर्थिक रूप से आत्म निर्भर भी बना चूका है।  इसके आलावा छात्रवृति योजना के माध्यम से भी लाखों गरीब परिवारों के बच्चों को  आर्थिक सहायता प्रदान कर, स्टेशनरी, मुफ्त किताबों का वितरण कर उन्हें अपनी स्कूली शिक्षाओं को जारी रखने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है।      

आज विश्व साक्षरता दिवस पर में प्रत्येक देशवासियों से अपील करता हूँ कि वो अपने पुत्रों के साथ अपनी पुत्रियों को आवश्यक रूप से ना सिर्फ साक्षर बनाएं बल्कि उसे शिक्षा प्राप्त कर आत्मनिर्भर बनने का  प्रचुर अवसर दें और उसके सपनों एवं महत्वकाँछों को साकार करने में पूर्ण सहयोग दें।

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Saturday, 3 September 2016

अहंकार छोड़िये और सीखना शुरू कीजिए


धरती पर जन्म लेने के साथ ही सीखने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है ज्यों हम बड़े होते जाते हैं, सीखने की प्रक्रिया भी विस्तार लेती जाती है, जल्द ही हम उठना, बैठना, बोलना, चलना सीख लेते हैं। इस बड़े होने की प्रक्रिया के साथ ही कभी-कभी हमारा अहंकार हमसे अधिक बड़ा हो जाता है और तब हम सीखना छोड़कर गलतियां करने लगते हैं।  आज इसी विषय पर मैं आप सबको एक कथा सुनाता हूँ।  

एक बार की बात है रूस के ऑस्पेंस्की नाम के महान विचारक एक बार संत गुरजियफ से मिलने उनके घर गए। दोनों में विभिन्न् विषयों पर चर्चा होने लगी। ऑस्पेंस्की ने संत गुरजियफ से कहा, यूं तो मैंने गहन अध्ययन और अनुभव के द्वारा काफी ज्ञान अर्जित किया है, किन्तु मैं कुछ और भी जानना चाहता हूं। आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं? गुरजियफ को मालूम था कि ऑस्पेंस्की अपने विषय के प्रकांड विद्वान हैं, जिसका उन्हें थोड़ा घमंड भी है अतः सीधी बात करने से कोई काम नहीं बनेगा। इसलिए उन्होंने कुछ देर सोचने के बाद एक कोरा कागज उठाया और उसे ऑस्पेंस्की की ओर बढ़ाते हुए बोले- ''यह अच्छी बात है कि तुम कुछ सीखना चाहते हो। लेकिन मैं कैसे समझूं कि तुमने अब तक क्या-क्या सीख लिया है और क्या-क्या नहीं सीखा है। अतः तुम ऐसा करो कि जो कुछ भी जानते हो और जो नहीं जानते हो, उन दोनों के बारे में इस कागज पर लिख दो। जो तुम पहले से ही जानते हो उसके बारे में तो चर्चा करना व्यर्थ है और जो तुम नहीं जानते, उस पर ही चर्चा करना ठीक रहेगा।''

बात एकदम सरल थी, लेकिन ऑस्पेंस्की के लिए कुछ मुश्किल। उनका ज्ञानी होने का अभिमान धूल-धूसरित हो गया। ऑस्पेंस्की आत्मा और परमात्मा जैसे विषय के बारे में तो बहुत जानते थे, लेकिन तत्व-स्वरूप और भेद-अभेद के बारे में उन्होंने सोचा तक नहीं था। गुरजियफ की बात सुनकर वे सोच में पड़ गए। काफी देर सोचने के बाद भी जब उन्हें कुछ समझ में नहीं आया तो उन्होंने वह कोरा कागज ज्यों का त्यों गुरजियफ को थमा दिया और बोले- श्रीमान मैं तो कुछ भी नहीं जानता। आज आपने मेरी आंखे खोल दीं। ऑस्पेंस्की के विनम्रतापूर्वक कहे गए इन शब्दों से गुरजियफ बेहद प्रभावति हुए और बोले - ''ठीक है, अब तुमने जानने योग्य पहली बात जान ली है कि तुम कुछ नहीं जानते। यही ज्ञान की प्रथम सीढ़ी है। अब तुम्हें कुछ सिखाया और बताया जा सकता है। अर्थात खाली बर्तन को भरा जा सकता है, किन्तु अहंकार से भरे बर्तन में बूंदभर ज्ञान भरना संभव नहीं। अगर हम खुद को ज्ञान को ग्रहण करने के लिए तैयार रखें तो ज्ञानार्जन के लिये सुपात्र बन सकेंगे। ज्ञानी बनने के लिए जरूरी है कि मनुष्य ज्ञान को पा लेने का संकल्प ले और वह केवल एक गुरू से ही स्वयं को न बांधे बल्कि उसे जहां कहीं भी अच्छी बात पता चले, उसे ग्रहण करें।''

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Tuesday, 30 August 2016

Good works done with honest intention never go in vain

A poor boy used to sell goods from door to door to meet his academic expenses and schooling. One day, this young boy while selling goods, felt hungry but had no money to buy any food. He decided to ask for something to eat when he knocked on the front door of the next house. A beautiful young woman opened the door, and the boy lost his nerve. He simply asked for a drink of water, too embarrassed to ask for food. The youngwoman brought him a glass of milk, which the boy greedily drank.
The boy asked her how much he owed, but she simply smiled and said her mother had taught her to be kind to others and never expect anything in return. The young boy left the woman's home with a full tummy and a heart full of renewed strength to push on with his education and continue working hard. Just when he was ready to quit, the woman had instilled in him new found faith and fortitude.
Years later, in a big city, renowned surgeon Dr. Howard Kelly was called to consult on a woman who was suffering from a rare disease. When the woman told him the name of the small town where she lived, Dr. Kelly felt a faint memory arise in his mind, and then suddenly recognition dawned on him. She was the woman who had given him the glass of milk many years ago.
The doctor went on to provide the woman with the very best care and made sure she received special attention. In fact, it was his skills as a doctor that saved her life. After a long and difficult hospitalization, the woman was finally ready for discharge home. The woman was worried it would take her years to settle her account with the hospital. Her serious illness and long hospital stay had produced a substantial bill. However, when she received the bill, she found that Dr. Kelly had paid the entire bill himself and written a small note for her.
The note simply stated: Paid in full with a glass of milk. Moral of the story: Any work done with good and honest intention and without any expectation never goes in vain. You are always rewarded for your noble and good works. So keep doing good works without any grain of expectation.

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Monday, 29 August 2016

पितृ पक्ष' में पितरों का तर्पण सर्वकल्याणकारी

अपने पूर्वजों, पितरों के प्रति श्रद्धा भावना रखते हुए 'पितृ पक्ष' के दौरान श्राद्ध कर्म एवं तर्पण करना नितान्त आवश्यक है। हिन्दू शास्त्रों में देवों को प्रसन्न करने से पहले, पितरों को प्रसन्न किया जाता है क्योंकि देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है। हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष के सोलह दिन निर्धारित किए गए हैं ताकि हम अपने पूर्वजों को याद करें और उनका तर्पण कर उन्हें शांति और तृप्ति प्रदान करें, जिससे कि उनका आशीर्वाद हमें सदैव मिलता रहे, हमारा हर कार्य निर्विघ्न संपन्न होता रहे और हम सुख, शांति एवं समृद्धि के साथ अपना जीवन यापन कर सकें । जिन माता, पिता, दादा, दादी, प्रपितामह, मातामही एवं अन्य बुजुर्गों के लाड, प्यार, श्रम से कमाएं धन एवं इज्जत के सहारे हम और आप सुखपूर्वक रहते हैं, तो हमारा परम कर्तव्य बनता है कि हमारे इन परिवारों के बुजुर्गों, जिनका शरीर पंच तत्व में विलीन हो गया है, उन्हें पितृ पक्ष के दौरान तर्पण देकर, उनके नाम से दान दक्षिणा कर तथा उनके नाम से पर्यावरण संरक्षण हेतु पौधा रोपण कर उनके प्रति अपने अटूट श्रद्धा को अर्पित करें तथा पितृलोक में उन्हें प्रसन्न रख कर उनका यथेष्ठ आशिर्वाद प्राप्त करें।
यदि हम अपने पूर्वजों के प्रति चाहे वो हमारे अपने माता, पिता, पितामह और प्रपितामह, मातामही या प्रमातामह हों, किसी भी तरह का असम्मान प्रकट करते हैं, उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य करते हैं, तो हमें अपने पितरों के कोप का भाजन बनना पड़ता है और हमें पितृ दोष की अति कठोर पीड़ा झेलनी पड़ती है। पर हममें से अधिक लोग कामकाजी, नौकरीपेशा एवं अपने व्यावसायिक कार्यों में व्यस्त होने के कारण, अपने पितरों को पितृ पक्ष के दौरान तर्पण नहीं अर्पित कर पाते और इसका परिणाम हमें आनेवाले समय में ना चाहते हुए भी भुगतना पड़ता है। अतः पितृ पक्ष में अपने पूर्वजों को तर्पण देना हिन्दू वंश में जन्म लेने वाले हर व्यक्ति का परम एवं पुनीत कर्तव्य है।
प्रत्येक वर्ष पितृ पक्ष के दौरान हमारे इंदौर स्थित 'सूर्योदय आश्रम' पर विद्वान् पंडितों के वैदिक पद्धति से कराये गए मंत्रोच्चार के बीच सैकड़ों धर्मावलंबियों के पूर्वजों की स्मृति में तर्पण कराया जाता है। इस पितृ पक्ष पर भी सूर्योदय परिवार द्वारा आगामी 16 सितम्बर से 30 सितम्बर के बीच पर्यावरण संरक्षण एवं उसके शुद्धिकरण हेतु 11,000 फलदार एवं औषधीय पौधों को रोपित करने का संकल्प लिया गया है। आप सभी महानुभाव पितृ पक्ष के अवसर पर आयोजित इस पुनीत कार्य में सहभागी होकर अपने पितरों के नाम पौधा रोपित कर सकते हैं, उन्हें तर्पण दे सकते हैं एवं उनके नाम पर दान कर पूण्य प्राप्त कर सकते हैं।

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Monday, 8 August 2016

मुसीबतों का डट कर सामना करने वाले कभी नहीं हारते


मित्रों, मुसीबतें हमारी ज़िंदगी की एक सच्चाई है। कोई इस बात को समझ लेता है तो कोई पूरी ज़िंदगी इसका रोना रोता है। ज़िंदगी के हर मोड़ पर हमारा सामना मुसीबतों से होता है. इसके बिना ज़िंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती।
अक्सर हमारे सामने मुसीबतें आती हैं तो हम उनके सामने पस्त हो जाते हैं। उस समय हमें कुछ समझ नहीं आता की क्या सही है और क्या गलत। हर व्यक्ति का परिस्थितियों को देखने का दृष्टिकोण अलग अलग होता है। कई बार हमारी ज़िंदगी में मुसीबतों का पहाड़ टूट पढ़ता है। उस कठिन समय मे कुछ लोग टूट जाते है तो कुछ संभाल जाते है। आज मैं आप सबको ऐसे ही एक बुलंद होंसलों की प्रेरक कथा सुनाता हूँ।

नेपोलियन अक्सर जोखिम भरे काम किया करते थे। एक बार उन्होने आलपास पर्वत को पार करने का ऐलान किया और अपनी सेना के साथ चल पढे। सामने एक विशाल और गगनचुम्बी पहाड़ खड़ा था जिसपर चढ़ाई करने असंभव था। उसकी सेना में अचानक हलचल की स्थिति पैदा हो गई। फिर भी उसने अपनी सेना को चढ़ाई का आदेश दिया। पास मे ही एक बुजुर्ग औरत खड़ी थी। उसने जैसे ही यह सुना वो उसके पास आकर बोले की क्यों मरना चाहते हो।
यहाँ जितने भी लोग आये हैं वो मुहं की खाकर यहीं रह गये। अगर अपनी ज़िंदगी से प्यार है तो वापस चले जाओ। उस औरत की यह बात सुनकर नेपोलियन नाराज़ होने की बजाये प्रेरित हो गया और झट से हीरों का हार उतारकर उस बुजुर्ग महिला को पहना दिया और फिर बोले; आपने मेरा उत्साह दोगुना कर दिया और मुझे प्रेरित किया है। लेकिन अगर मैं जिंदा बचा तो आप मेरी जय-जयकार करना। उस औरत ने नेपोलियन की बात सुनकर कहा- तुम पहले इंसान हो जो मेरी बात सुनकर हताश और निराश नहीं हुए। ‘ जो करने या मरने ‘ और मुसीबतों का सामना करने का इरादा रखते है, वह लोग कभी नही हारते।

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Monday, 1 August 2016

सबसे दरिद्र मनुष्य

बहुत समय पहले की बात है गुरु शांतानदं अपने शिष्यों के साथ अपने आश्रम में किसी विषय पर कोई खास चर्चा कर रहे थे | तभी एक भिखारी वंहा से होता हुआ  गुजरा तो शिष्य को उसे देखकर थोडा आश्चर्य हुआ | उसने गुरूजी से पूछा कि गुरूजी राज्य में चारो ओर खुशहाली और समृद्धि का माहौल है फिर भी राज्य में ये भिखारी कैसे क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि यह किसी दूसरे राज्य से यंहा आया होगा | अगर इसी राज्य का  है तो यंहा का यह सबसे दरिद्र मनुष्य होगा |

नहीं पुत्र इस से भी दरिद्र एक व्यक्ति है लेकिन वह मैं तुम्हे अवसर आने पर ही बताऊंगा | बात सामान्य हो गयी और शिष्य भूल भी गया | इस घटना के कुछ ही दिनों बाद एक दिन दोनों गुरु और शिष्य कंही जा रहे थे तो उन्होंने क्या देखा कि दूर से उसी राज्य के राजा विजय सिंह अपनी सेना के साथ उसी रास्ते पर आ रहे थे |
 
गुरु ने अपने शिष्य से कहा वत्स उस दिन जो हम लोगो ने बात को बीचे में छोड़ दिया था वो मैं आज पूरी करूँगा और तुम्हें बताऊंगा कि राज्य का सबसे दरिद्र व्यक्ति कौन है | इतने में राजा की सवारी एकदम नजदीक आ गयी |  ऋषि को देखकर राजा अपनी सवारी से उतरा और ऋषि को नमन करते हुए बोला गुरु जी मैं पडोसी राज्य को जीतने के लिए जा रहा हूँ कृपया मुझे विजयी होने का आशीर्वाद दें | इस पर ऋषि बोले राजन  तुम्हें इस राज्य में किसी भी चीज़ की कमी नहीं है चारो तरफ सुखी और समृद्धि का माहौल है उसके बाद भी तुम राज्य की लालसा में हो चलो कोई बात नहीं मैं तुम्हे विजयी होने का आशीर्वाद देता हूँ और ऋषि ने एक सिक्का राजा की हथेली में रख दिया और कहा मुझे तुम सबसे अधिक दरिद्र लगे इस लिए मैंने ये तुम्हें दिया है |

ऋषि की बात सुनकर राजा को अपराधबोध हुआ और उसे सत्य की अनुभूति हुई कि निश्चित ही ऋषि सही कह रहे हैं और उसने युद्ध का विचार त्याग दिया और इस भूल के लिए ऋषि से क्षमा माँगी | शिष्य भी ये सब देख रहा था और उसने गुरु से कहा गुरुदेव आज मुझे आपकी बात का अर्थ समझ में आ गया है |  
ऋषि मुस्कुराकर चल दिए |

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Saturday, 23 July 2016

डर को खत्म करो


किसी बस्ती में एक बालक रहता था| वह बड़ा निडर था| घूमते-घूमते वह अक्सर बस्ती के बाहर नदी के किनारे चला जाता था और थोड़ी देर वहां रुककर लौट आता था| उसके बाबा उसे बहुत प्यार करते थे| उन्हें लगा कि किसी दिन वह नदी में गिर न जाए! इसलिए एक दिन उन्होंने अपने बेटे से कहा - "बेटे, तुम अकेले नदी के किनारे मत जाया करो| "
बालक ने पूछा - "क्यों? "
बाबा ने कहा - "वहां भूत रहता है| "
भूत की बात सुनकर बालक के मन में इतना डर बैठ गया कि उसके लिए घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया|
जरा-जरा-सी बात में भूत उसके सामने आ खड़ा होता!
बाबा यह देखकर बड़े हैरान हुए| उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि बालक भूत की बात से इतना डर जाएगा! तब उन्होंने एक दिन बालक के हाथ में एक धागा बांध दिया और कहा - "अब तुम्हें भूत से डरने की कोई जरूरत नहीं है| यह देखो, भगवान तुम्हारे साथ रहेंगे| "
बालक खुश हो गया| वह फिर से बाहर घूमने लगा| एक दिन संयोग से उसके हाथ का धागा टूटकर कहीं गिर गया|
बालक घबराया हुआ बाबा के पास आया और खाली कलाई बाबा को दिखाकर बोला - "बाबा, भगवान चले गए! मैं अब क्या करूं? "
तब बाबा ने उसको समझाकर कहा - "बेटे, नदी के किनारे कोई भूत-वूत कुछ नहीं था और न धागे में भगवान थे| ये तो हमारे बनाए हुए थे| आदमी को डरना नहीं चाहिए| जिसका दिल मजबूत होता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता| "
बालक को अब असली बात समझ में आ गई और वह आनंद से रहने लगा|

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Monday, 9 May 2016

जरुरी नहीं जो दिख रहा है, वही सच हो !

Turn off for: Hi
मित्रों, अक्सरहाँ  हम में से अधिकांश किसी बात की तह में गए बिना,  सामने वाले की परिस्थितियों को जाने बिना, जल्दबाज़ी में गलत निर्णय ले लेते हैं, यहाँ तक कि उस व्यक्ति से अपना सम्बन्ध विच्छेदन भी कर लेते हैं। पर जब हमें वास्तविकता से सामना होता है तो हमें पाश्चाताप के शिवा कुछ भी नहीं मिलता।  कई बार हम स्वयं ही किसी की सुनी सुनाई बातों पर या किसी भी ग़लतफ़हमी, निर्मूल शकाओं के कारण अपने आपस के मधुर सम्बन्धों में खटास उत्पन्न कर लेते हैं।  अतः जरुरी नहीं कि कई बार जो हम देखते हैं या हमें दिखाया जाता है, वही सच हो ? अतः आवश्यक है कि भावावेश में आकर हम कोई ऐसा निर्णय ना लें जिससे कि हमारे आपसी मधुर रिश्तों में दरार उत्पन्न हो।   तो चलिए आज में आप सबको इसी सन्दर्भ में एक कथा सुनाता हूँ।  कथा कुछ इस तरह है --        किसी शहर में एक जौहरी रहता था। उसका भरा-पूरा परिवार था। एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने के कारण उसका निधन हो गया। उसके निधन के बाद परिवार संकट में पड़ गया। हालांकि पत्नी ने बुरे दिनो के लिए कुछ रूपये-पैसे बचा कर रखे थे। पर भला वे कितने दिन तक चलते? इसलिए उनके खाने के लाले पड़ गए।  जौहरी की पत्नी के पास एक नीलम का हार था। उसने अपने बेटे को वह हार देकर कहा- 'बेटा, इसे अपने चाचा की दुकान पर ले जाओ। कहना इसे बेचकर रुपये दे दें, जिससे परिवार का खर्चा चल सके।' 

बेटे ने हार को एक थैले में रखा और उसे लेकर चाचा के पास जा पहुंचा। हार को देखकर चाचा चाैंक उठे। वे उसे कुछ रूपये देते हुए बोले, 'बेटा, यह पैसे तुम रख लो। और जहां तक हार की बात है, इसे तुम वापस लेते जाओ। मां से कहना कि अभी बाजार बहुत मंदा है।' फिर वे थोड़ा रुककर बोले, 'कल से तुम दुकान पर आ जाना। कुछ काम धंधा सीखोगे और दो-चार रूपये की आमदनी भी हो जाएगी।' 

चाचाजी की बात सभी को अच्छी लगी। अगले दिन से लड़का दुकान पर जाने लगा और चाचा के साथ रह जौहरी का काम सीखने लगा। देखते देखते काफी समय बीत गया। एक दिन वह लड़का हीरे-जवाहरात का बड़ा पारखी बन गया। एक दिन मौका देखकर चाचा ने उससे कहा, 'बेटा तुम्हें ध्यान होगा कि एक दिन तुम एक नीलम का हार बेचने के लिए लाए थे। उसे अपनी मां से लेकर आना, आजकल बाजार बहुत तेज है, उसके अच्छे दाम मिल जाएंगे।'
लड़का जब शाम को अपने घर पहुंचा, तो उसमें मां से वह हार मांगा। मां ने जब नीलम का हार लड़के के हाथ में रखा, तो वह आश्चर्यचकित रह गया। वह हार नकली था। लेकिन इस बात ने उसे सोच में डाल दिया। अगर यह हार नकली है, तो उस समय उसे चाचाजी ने यह बात क्यों नहीं बताई थी, जब वह उसे बेचने के लिए चाचाजी के पास लेकर गया था?

चाचाजी ने जब उसकी बात सुनी, तो वे बोले, 'बेटा, जब तुम पहली बार हार लेकर थे, तब मैंने जानबूझकर इसे नकली नहीं बताया था। क्योंकि उस समय तुम्हारे परिवार के बुरे दिन चल रहे थे। उस समय तुम हमारी बात पर  विश्वास नहीं करते। तुम्हें लगता कि हमारे बुरे दिन चल रहे हैं, तो चाचा भी हमें ठगने की सोच रहे हैं। इससे तुम्हारी नजर में हम अनावश्यक रूप से बुरे बन जाते और हमारे सम्बंध खराब हो जाते। इसीलिए मैंने उस दिन मंदी का बहाना करके हार बेचने से मना कर दिया था। आज जब तुम्हें स्वयं रत्नों की परख हो गयी है, तो तुम्हें स्वयं ही पता चल गया कि हार सचमुच नकली है।'

मित्रों, ऐसा अक्सर हमारे साथ भी होता है। हम किसी भी घटना अथवा बात की गहराई को समझ नहीं पाते और लोगों के साथ अपने सम्बंध खराब कर लेते हैं, जबकि उसके पीछे की वजह दूसरी होती है। इसीलिए जब भी कभी ऐसा अवसर आए, जिससे आपके रिश्ते प्रभावित हो रहे हों, वहां तत्काल कोई निर्णय न लें। क्योंकि हीरे की परख के लिए अनुभव का ज्ञान जरूरी होता है। हो सकता है कि बिना ज्ञान/अनुभव के आप कोई गलत निर्णय ले बैठें और उसकी वजह से आपको ताउम्र पछताना पड़ जाए।

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Monday, 2 May 2016

विनम्रता ही मनुष्य को महान बनाती है



मित्रों, विनम्रता हमारी जिन्दगी में हमारे स्वाभाव के लिए वो बेहतरीन तोहफा है, जिसे अपनाकर हम सामने वाले के साथ-साथ अपने मन पर भी एक सकारात्मक असर डालते हैं।  तो आज विनम्रता से जुडी एक शिक्षाप्रद कथा आप सबको सुनाता हूँ –

कथा कुछ इस तरह है -- एक संत अपनी तीर्थ यात्रा पर थे और उन्होंने वृन्दावन जाने का सोचा लेकिन पहुँचने से पहले ही जब वो कुछ मील की दूरी पर थे तो रात हो गयी।  उन्होंने अपने मन में ये ख्याल किया कि चलो क्यों ना आज पास के ही एक गाँव में रात्रि विश्राम कर लूँ और फिर सुबह जल्दी उठकर अपनी यात्रा प्रारम्भ कर लूंगा |  उनका (संत)  का एक नियम था कि वो केवल उसी घर का जल और अन्न ग्रहण करते थे जिनके घर में लोगो का आचार, विहार और विचार पवित्र हो।  उन्होंने इस बारे में पूछताछ की तो उन्हें किसी ने बताया की ब्रज के पास ये जो सीमावर्ती गाँव है, वंहा लोग सभी वैष्णव हैं और सब के सब कृष्ण के परम भक्त हैं |
संत उस गाँव में गये और एक व्यक्ति के घर का द्वार खटखटाया और उनसे कहा कि ” भाई मैं थोडा विश्राम करना चाहता हूँ तो क्या मैं आपके घर रात बिता सकता हूँ और मैं केवल उसी के घर का भोजन और पानी ग्रहण करता हूँ जिसके घर का आचार विचार शुद्ध हो | इस पर उस व्यक्ति ने कहा महाराज क्षमा करें मैं तो निरा अधम हूँ लेकिन मेरे अलावा हर कोई जो इस गाँव में रहता है बहुत ही पवित्र विचारों वाले हैं लेकिन फिर भी अगर आप मेरे घर में कदम रखकर मेरे घर को पवित्र करते हैं तो मैं अपने घर को और अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली मानूंगा |
संत कुछ नहीं बोले और आगे बढ़ गये और फिर आगे जाकर उन्होंने एक और व्यक्ति से रात बिताने के लिए विनती कि तो उसने भी वही जवाब दिया जो पहले व्यक्ति ने दिया था और इस तरह संत  जिसके भी घर गये और सबसे यही बात कही और सभी ने एक ही जवाब दिया।  इस पर संत को स्वयं पर लज्जा महसूस हुई कि वो एक संत होकर इतनी छोटी सोच रखते हैं जबकि एक आम आदमी जो गृहस्थ है, वो अपने परिवार के जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी कितना उत्तम आचरण लिए हुए है कि खुद को सबसे छोटा बता रहा है।  अपनी भूल समझकर वो एक व्यक्ति के पास गये और उससे कहा  क्षमा कीजिये अधम आप नहीं अधम तो मैं हूँ जो जिन्दगी का एक छोटा सा सार भी नहीं समझ सकता, इसलिए मैं आपके घर रात बिताना चाहता हूँ।  मैं समझ गया हूँ कि आप सब लोग सच्चे विनम्र है और साथ ही सच्चे वैष्णव भी और मैं आपके घर का खाना और पानी ग्रहण करके खुद को पवित्र करना चाहूँगा |

मित्रों यह कथा जीवन में विनम्रता की सच्ची पहचान बताती है खुद को छोटा समझना और दूसरों से अपनी तुलना नहीं करना ही आपको असल जिन्दगी में महान आचरण वाला बनाता है।  इस कथा का सार यह है कि विनम्रता, सच्चचरित्रता  मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है।  आपकी विनम्रता ही आपको महान बनाती है। 

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Tuesday, 26 April 2016

भगवान किस रूप में आ जाये

एक समय की बात है किसी गाँव में एक साधु रहता था, वह भगवान का बहुत बड़ा भक्त था और निरंतर एक पेड़ के नीचे बैठ कर तपस्या किया करता था | उसका भागवान पर अटूट विश्वास था और गाँव वाले भी उसकी इज्ज़त करते थे| एक बार गाँव में बहुत भीषण बाढ़ आ गई | चारो तरफ पानी ही पानी दिखाई देने लगा, सभी लोग अपनी जान बचाने के लिए ऊँचे स्थानों की तरफ बढ़ने लगे | जब लोगों ने देखा कि साधु महाराज अभी भी पेड़ के नीचे बैठे भगवान का नाम जप रहे हैं तो उन्हें यह जगह छोड़ने की सलाह दी| पर साधु ने कहा- ” तुम लोग अपनी जान बचाओ मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा!” धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ता गया , और पानी साधु के कमर तक आ पहुंचा , इतने में वहां से एक नाव गुजरी| मल्लाह ने कहा- ” हे साधू महाराज आप इस नाव पर सवार हो जाइए मैं आपको सुरक्षित स्थान तक पहुंचा दूंगा |” “नहीं, मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता नहीं है , मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा !! “, साधु ने उत्तर दिया.
नाव वाला चुप-चाप वहां से चला गया. कुछ देर बाद बाढ़ और प्रचंड हो गयी , साधु ने पेड़ पर चढ़ना उचित समझा और वहां बैठ कर ईश्वर को याद करने लगा | तभी अचानक उन्हें गड़गडाहत की आवाज़ सुनाई दी, एक हेलिकोप्टर उनकी मदद के लिए आ पहुंचा, बचाव दल ने एक रस्सी लटकाई और साधु को उसे जोर से पकड़ने का आग्रह किया|
पर साधु फिर बोला-” मैं इसे नहीं पकडूँगा, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा |” उनकी हठ के आगे बचाव दल भी उन्हें लिए बगैर वहां से चला गया | कुछ ही देर में पेड़ बाढ़ की धारा में बह गया और साधु की मृत्यु हो गयी |
मरने के बाद साधु महाराज स्वर्ग पहुचे और भगवान से बोले -. ” हे प्रभु मैंने तुम्हारी पूरी लगन के साथ आराधना की… तपस्या की पर जब मै पानी में डूब कर मर रहा था तब तुम मुझे बचाने नहीं आये, ऐसा क्यों प्रभु ?
भगवान बोले , ” हे साधु महात्मा मै तुम्हारी रक्षा करने एक नहीं बल्कि तीन बार आया , पहला, ग्रामीणों के रूप में , दूसरा नाव वाले के रूप में , और तीसरा ,हेलीकाप्टर बचाव दल के रूप में. किन्तु तुम मेरे इन अवसरों को पहचान नहीं पाए |”
मित्रों, इस जीवन में ईश्वर हमें कई अवसर देता है , इन अवसरों की प्रकृति कुछ ऐसी होती है कि वे किसी की प्रतीक्षा नहीं करते है , वे एक दौड़ते हुआ घोड़े के सामान होते हैं जो हमारे सामने से तेजी से गुजरते हैं , यदि हम उन्हें पहचान कर उनका लाभ उठा लेते है तो वे हमें हमारी मंजिल तक पंहुचा देते है, अन्यथा हमें बाद में पछताना ही पड़ता है|

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Saturday, 23 April 2016

जीवन का लक्ष्य और दिशा


मित्रों, आज मैँ आप सबको जीवन में लक्ष्य के महत्ता के बारे में बताता हूँ कि किस तरह जीवन में सफल होने के लिए लक्ष्य का निर्धारित होना आवश्यक है। कहानी कुछ इस तरह है -  रेगिस्तानी मैदान से एक साथ कई ऊंट अपने मालिक के साथ जा रहे थे। अंधेरा होता देख मालिक ने एक सराय में रुकने का आदेश दे दिया। निन्यानवे ऊंटों को जमीन में खूंटियां गाड़कर उन्हें रस्सियों से बांध दिया मगर एक ऊंट के लिए रस्सी कम थी ,काफ़ी खोजबीन की , पर व्यवस्था हो नहीं पाई। तब सराय के मालिक ने सलाह दी कि तुम खूंटी गाड़ने जैसी चोट करो और ऊंट को रस्सी से बांधने का अहसास करवाओ।
यह बात सुनकर मालिक हैरानी में पड़ गया , पर दूसरा कोई रास्ता नहीं था , इसलिए उसने वैसा ही किया।
झूठी खूंटी गाड़ी गई , चोटें की गईं। ऊंट ने चोटें सुनीं और समझ लिया कि बंध चुका है। वह बैठा और सो गया। 
सुबह निन्यानबे ऊंटों की खूटियां उखाड़ीं और रस्सियां खोलीं , सभी ऊंट उठकर चल पड़े , पर एक ऊंट बैठा रहा। मालिक को आश्चर्य हुआ - अरे , यह तो बंधा भी नहीं है , फिर भी उठ नहीं रहा है।
सराय के मालिक ने समझाया - तुम्हारे लिए वहां खूंटी का बंधन नहीं है मगर ऊंट के लिए है। जैसे रात में व्यवस्था की , वैसे ही अभी खूंटी उखाड़ने और बंधी रस्सी खोलने का अहसास करवाओ। 
मालिक ने खूंटी उखाड़ दी जो थी ही नहीं , अभिनय किया और रस्सी खोल दी जिसका कोई अस्तित्व नहीं था। इसके बाद ऊंट उठकर चल पड़ा।
मित्रों, ऐसा हम मनुष्यों के साथ भी होता है हम भी ऐसी ही खूंटियों से और रस्सियों से बंधे होते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता। मनुष्य बंधता है अपने ही गलत दृष्टिकोण से , गलत सोच से , विपरीत मान्यताओं की पकड़ से। ऐसा व्यक्ति सच को झूठ और झूठ को सच मानता है। वह दोहरा जीवन जीता है। उसके आदर्श और आचरण में लंबी दूरी होती है। इसलिए जरूरी है कि मनुष्य का मन जब भी जागे , लक्ष्य का निर्धारण सबसे पहले करे।
बिना उद्देश्य मीलों तक चलना सिर्फ थकान , भटकाव और निराशा देगा , मंजिल नही।
जिंदगी को सफल बनाने का एक ही तरीका है अपना लक्ष्य निर्धारित  करें और उसी दिशा मे काम करें |

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Tuesday, 19 April 2016

मुश्किलों पर विजय

मित्रों, हम सभी को समय समय पर अवांछित मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कई लोग इन मुश्किलों के बोझ तले  इतने दब जाते हैं कि वो नैराश्य की अवस्था में पहुँच कर हतोत्साहित हो जाते हैं, और कई बार तो इन मुश्किलों एवं अपनी मानसिक यातनाओं से  मुक्ति के लिए तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं। यह अत्यन्त दुखद स्थिति है।  हम मुश्किलों से जितना दूर भागेंगे, मुश्किलें उतना ही अधिक हमारा पिछा करेंगी। आवश्यकता है कि हम सब अपने जीवन में आए मुश्किलों का डट कर सामना करें, इसे अपने मनःस्थिति पर हावी ना होने दें और तब मुश्किलें स्वतः ही परास्त हो जाएंगी।  इसी सन्दर्भ में, मैँ आप सबको एक कथा सुनाता हूँ।  कथा कुछ इस तरह है ---  दो व्यक्ति राम और श्याम शहर से कमाकर पैसे लेकर घर लौट रहे थे। अपनी मेहनत से राम ने खूब पैसे कमाए थे, जबकि श्याम कम ही कमा पाया था। श्याम के मन में खोट आ गया। वह सोचने लगा कि किसी तरह राम  का पैसा हड़पने को मिल जाए, तो खूब ऐश से जिंदगी गुजरेगी। रास्ते में एक उथला कुआं पड़ा, तो श्याम ने राम को उसमें धक्का दे दिया। राम गढ्डे से बाहर आने का प्रयत्न करने लगा। 
श्याम ने सोचा कि यह ऊपर आ गया, तो मुश्किल हो जाएगी। इसलिए श्याम साथ लिए फावड़े से मिट्टी खोद-खोदकर कुएं में डालने लगा। लेकिन जब राम के ऊपर मिट्टी पड़ती, तो वह अपने पैरों से मिट्टी को नीचे दबा देता और उसके ऊपर चढ़ जाता। मिट्टी डालने के उपक्रम में श्याम इतना थक गया था कि उसके पसीने छूटने लगे। लेकिन तब तक वह कुएं में काफी मिट्टी डाल चुका था और राम उन मिट्टियों पर चढ़ कर  ऊपर आ गया।
मित्रों, इस कथा का सार यह है कि जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं, जब बहुत सारी मुश्किलें एक साथ हमारे जीवन में मिट्टी की तरह आ पड़ती हैं। जो व्यक्ति इन मुश्किलों पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ता जाता है उसी की जीत होती है और वही  जीवन में हर बुलंदियों को छूता है

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Saturday, 16 April 2016

अपने विश्वास को कभी कमजोर मत होने दें

मित्रों, विश्वास वो ताकत है जो आपको सम्बल देता है बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को झेलने का, तूफानों। विपदाओं से जूझने का।  आज जो में आप सबको कहानी सुना रहा हूँ वह एक ऐसे आदमी की है जो एक लम्बी हवाई यात्रा करके आ रहा था। हवाई यात्रा ठीक ठाक चल रही थी तभी एक उदघोष हुआ कि कृपया अपनी सीट बेल्ट बांध लें क्योंकि कुछ समस्या आ सकती है। तभी एक और उदघोष हुआ कि , " मौसम खराब होने के कारण कुछ गड़बड़ी होने की 
सम्भावना है अतः हम आपको पेय पदार्थ नहीं दे पाएंगे। कृपया अपनी सीट बेल्ट्स कस कर बांध लें। "
जब उस व्यक्ति ने अपने चारों ओर अन्य यात्रियों की ओर देखा तो पाया कि वे किसी अनिष्ट की आशंका से थोड़े भयभीत लग रहे थे। कुछ समय के पश्चात फिर एक उदघोष हुआ, " क्षमा करें, आगे मौसम ख़राब है अतः हम आपको भोजन की सेवा नहीं दे सकेंगे। कृप्या अपनी सीट बेल्ट बांध लें ।"
और फिर एक तूफ़ान सा आ गया। बिजली कड़कने और गरजने की आवाजें हवाई जहाज़ के अन्दर तक सुनायी देने लगीं। बाहर का ख़राब मौसम और तूफ़ान भी भीतर से दिखाई दे रहा था।
हवाई जहाज़ एक छोटे खिलौने की तरह उछलने लगा। कभी तो जहाज़ हवा के साथ सीधा चलता था और कभी एकदम गिरने लगता था जैसे कि ध्वस्त हो जायेगा।                      
वह व्यक्ति बोला की अब वह भी अत्यंत भयभीत हो रहा था और सोंच रहा था कि यह जहाज़ इस तूफ़ान से सुरक्षित निकल पायेगा अथवा नहीं। फिर जब उसने अपने चारों ओर अन्य यात्रियों की ओर देखा तो उसने पाया कि सब ओर भय और असुरक्षा का सा माहौल बन चुका था। तभी उसने देखा कि एक सीट पर एक छोटी सी लड़की सीट पर पैर ऊपर करके आराम से बैठी एक पुस्तक पढ़ने में डूबी हुयी थी। उसके चेहरे पर चिंता की कोई शिकन तक नहीं थी। वह कभी-कभी कुछ क्षड़ो के लिए अपनी ऑंखें बंद करती और फिर आराम से पढने लग जाती थी। जब सभी यात्री भयाक्रांत हो रहे थे, जहाज़ उछल रहा था तब भी यह 
लड़की भय एवं चिन्ता से कोसों दूर थी  और आराम से पढ़ रही थी।
उस व्यक्ति को अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ और जब वह जहाज़ अन्ततः सुरक्षित उतर गया। वह व्यक्ति सीधे उस लड़की के पास गया और उसने उससे पूँछा, कि इतनी खतरनाक परिस्तिथियों में भी वह बिलकुल नहीं डरी और एकदम शान्त किस प्रकार बनी हुयी थी। इस पर उस लड़की ने उत्तर दिया,  
" सर मेरे पिताजी इस विमान के चालक थे और वो मुझे घर ले जा रहे थे। " इस कहानी का सार यह है कि हमें अपने अंदर के विश्वास को कभी कमजोर नहीं होने देना चाहिए। 

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Saturday, 9 April 2016

अपने शब्दों का चयन सोच समझ कर करें

मित्रों एक जुमला प्रचलित है कि  ” मुंह से निकले शब्द वापिस नहीं लिए जा सकते ठीक वैसे ही जैसे धनुष से निकला हुआ तीर कभी वापिस नहीं आता ” इसलिए हमे बड़ी सावधानी से अपने शब्दों का चुनाव करना चाहिए। बडबोलापन दोस्तों के बीच आपको जरूर लोकप्रियता दिला सकता है लेकिन कभी कभी ये नुकसानदेह होता है क्योकि पहली बार हमसे मिलने के बाद जो छवि किसी इन्सान के लिए बनती है उसमें उस से हुई हमारी बातचीत का ही शत प्रतिशत योगदान होता है। तो चलिए इस सन्दर्भ में मैँ आप सबको एक कहानी सुनाता हूँ। 

कहानी कुछ इस तरह है  -- एक आदमी ने अपने पडोसी को बहुत बुरा भला कहा जबकि बाद में उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तो वो पश्चाताप करने चर्च गया।  वंहा जाकर पादरी के सामने ये कॉन्फेशन दिया तो पादरी ने उस से एक पंखो से भरा थैला दिया और उस से कहा कि जाकर किसी खुली जगह में बिखेर तो।  तो पादरी के कहने पर उस आदमी ने यही किया और जब लौटकर आया तो पादरी ने उसे कहा कि क्या तुम अब जाकर उन पंखो को वापिस इसी थैले में भरके ला सकते हो, तो उस आदमी ने वंहा जाकर बहुत कोशिश  की मगर नहीं कर पाया, क्योंकि सारे पंख हवा की वजह से इधर उधर बिखर गये थे तो मायूस होकर वह आदमी खाली थैला लिए लौटा तो पादरी ने समझाया जिस तरह तुम पंखो को वापिस नहीं समेट सकते उसी तरह तुम लाख पश्चाताप कर लो लेकिन अपने बोले हुए शब्द वापिस नहीं ले सकते | मनुष्य के जीवन में भी ये बात लागु होती हैं।  इसलिए  हमें शब्दों के चुनाव में हमेशा सावधानी बरतनी चलिए क्योकि कई बार कोई अच्छा अवसर भी इसी आदत से हमारे हाथ से निकल जाता है |

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Monday, 4 April 2016

Tame you temper



 

Friends, each of us in our lives passes through turbulent times and bad patches of life. Driven by adverse circumstances around us most of the time we loose our temper knowing well that it would do no good to us. Most of us do not have control on our bad tempers. But have we ever imagined how dangerous these bad tempers are? They are as deadly as any  disease. But solution to bad temper lies within us. We must learn to be calm and composed even if things in lives not going our ways. We must now allow ourselves to fall in the deadly trap of tempers, else we will be ruining our own lives.

 Here I am citing you story of a little boy who had a bad temper. His father gave him a bag of nails and told him that every time he lost his temper, he must hammer a nail into the back of the fence.
The first day, the boy had driven 37 nails into the fence. Over the next few weeks, as he learned to control his anger, the number of nails hammered daily gradually dwindled down. He discovered it was easier to hold his temper than to drive those nails into the fence.
Finally the day came when the boy didn’t lose his temper at all. He told his father about it and the father suggested that the boy now pull out one nail for each day that he was able to hold his temper. The days passed and the boy was finally able to tell his father that all the nails were gone.
The father took his son by the hand and led him to the fence. He said, “You have done well, my son, but look at the holes in the fence. The fence will never be the same. When you say things in anger, they leave a scar just like this one.
You can put a knife in a man and draw it out. It won’t matter how many times you say I’m sorry, the wound is still there. A verbal wound is as bad as a physical one.

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